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________________ भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व : ३ में कोई भी निश्चयात्मक कथन करना कठिन है । भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद अत्यन्त प्राचीन माना जाता है । उक्त वेद की अभिरुचि का मुख्य केन्द्र इन्द्र, वरुण, मित्र, वायु, रुद्र, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु, उषा, अग्नि, पूषन्, सोम आदि देवता हैं । जिनकी स्तुति - उपासना से मृत्यलोकवासी मनुष्य अभिलषित वस्तुओं - सम्पत्ति, सन्तति, शत्रुओं पर विजय, लम्बी उम्र आदि प्राप्त कर सकते हैं । जिस आत्मा की विस्तृत चर्चा उपनिषदों में मिलती है उसका उल्लेख ऋग्वेद में प्रायः नहीं है । वहाँ व्यक्ति के भीतर वर्तमान जीवन-तत्त्व को आत्मन्, जीव, प्राण, मनस्, असु, श्वांस आदि शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है । उपनिषदों में आत्मा की कल्पना विविध रूपों में देखी जाती है और उसके अस्तित्व की सिद्धि और स्वरूप के निरूपण का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है । यद्यपि ऋग्वेद में आत्मा सम्बन्धी चिन्तन विरल है फिर भी यह कल्पना पाई जाती है कि शरीरादि से भिन्न सार तत्त्व है जो उसका नियंत्रक या कर्ता है । उपनिषदों में आत्मा विषयक जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है, उससे दो महत्त्वपूर्ण बातों पर प्रकाश पड़ता है । एक तो यह कि उपनिषद् काल के पूर्व ही आत्मा विषयक चिन्तन विद्यमान था, जिसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे । दूसरे उपनिषदों का आत्मा विषयक चिन्तन परम्परा प्राप्त ॠग्वेदिक चिन्तन से भिन्न था। डा० राधाकृष्णन् ने लिखा है "आत्मा, पुनर्जन्म, अरण्य, संन्यास, तप और मुक्ति ये सारे तत्त्व परस्पर में सम्बद्ध हैं । आत्म-विद्या का एक छोर पुनर्जन्म है और दूसरा छोर मुक्ति है । संन्यास लेकर अरण्य में तप करना पुनर्जन्म से मुक्ति का उपाय है, ये सब तत्त्व वैदिकेतर संस्कृति से वैदिक संस्कृति में प्रविष्ट हुए हैं । इसलिए विद्वानों का कहना है कि अवैदिक तत्त्वों का प्रभाव केवल देश में विचारों के विकास के लिए एक नये प्रकार के दृश्य से परिचय में परिलक्षित नहीं होता किन्तु सत्य तक पहुँचने के लिए उपायों के परिवर्तन में परिलक्षित होता है" 13 इस प्रसंग में उपनिषदों के निम्नलिखित सन्दर्भ उल्लेखनीय हैं। (१) कठोपनिषद् के नचिकेतोपाख्यान में उल्लेख किया गया है कि वाजश्रवस् १. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य 'वैदिक धर्म एवं दर्शन' (ए० बी० कीथ ), प्रथम भाग २. ऋग्वेद, ३।१४।३, २१।१६४|४| और भी देखें - मेक्समूलर : इंडियन फिलासफी, खण्ड १, पृ० ७० ३. भारतीय दर्शन : डा० राधाकृष्णन्, भाग १, पृ० ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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