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________________ २ : जैनदर्शन में आत्म-विचार (Extension) अथवा देशगतता या देशरूपता । इस दृष्टि से आत्मा को देशगत नहीं कहा जा सकता । देकार्त को यह सिद्ध करना पड़ता है कि हमारी समस्त मनोदशाएँ चिन्तन का ही रूप हैं । इसके विपरीत यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने आत्मा में तीन विभाग या शक्तियां मानी थीं - अर्थात् मूल क्षुधाएँ ( Appetitions), आवेग (Emotion ) तथा बुद्धि (Reason ) । सम्भवत: प्लेटो आत्मा के बुद्धि अंश को अमर मानता था । देखने की बात यह है कि प्लेटो और देकार्त दोनों ही आत्मा की धारणा हमारे सांसारिक जीवन के आधार पर बनाते हैं । किन्तु भारतीय दर्शन प्रायः जीव और आत्मा में भेद करते हैं । उन्होंने आत्मा के स्वरूप पर मुख्यतया मोक्ष की दृष्टि से विचार किया है । सांसारिक जीवन से संपृक्त और शरीर से सम्बद्ध चैतन्य को, जिसमें तरह-तरह की क्षुधाएँ हैं, वे मुख्यतः हिन्दू दर्शन में जीव नाम से पुकारते हैं । मोक्ष की दृष्टि से यहाँ का आत्म-सम्बन्धी चिन्तन कतिपय विशेष निष्कर्षो पर पहुँचता दिखाई पड़ता है । पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए आत्मा की अमरता मानना आवश्यक और पर्याप्त है । किन्तु मोक्ष की कल्पना यह आवश्यक बना देती है कि आत्मा को अपने मूल रूप में विशुद्ध अर्थात् सुख-दुःख आदि मनोदशाओं से विरहित तत्त्व माना जाय । हम देखेंगे कि प्रायः सभी दर्शन किसी-नकिसी रूप में उक्त मान्यताओं को स्थान देते हैं । अनात्मवादी चार्वाक दर्शन तथा पंचस्कन्धवादी बौद्ध दर्शन ही इसके अपवाद हैं । भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व प्रधान बन गया, इसके दो मुख्य कारण थे, पहला कारण तो यह था कि बहुत प्रारम्भ में कर्म सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म की धारणाएँ भारतीय मनीषा में प्रतिष्ठित हो गयीं, दूसरे यहाँ उपनिषद् काल में ही मोक्षवाद की मान्यता सर्वस्वीकृत सी बन गयी । पुनर्जन्म के सिद्धान्त ने आत्मा की अमरता के विश्वास को जन्म दिया, मोक्षवाद ने आत्मा के निजस्वरूप की अवधारणा को, जैसा कि हम देखेंगे, क्रान्तिकारी रूप दिया । श्रमण धर्मों का उदय और आत्म-तत्त्व की प्रधानता का तीसरा कारण प्रसार था । जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ही सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, फलतः उनके दर्शनों में आत्मा या जीव-तत्त्व के विश्लेषण का महत्त्व बढ़ गया । श्रमण धर्म-दर्शन ने मोक्ष की अवस्था को जीवात्मा के निज-स्वभाव से सम्बद्ध किया, यही विचार उपनिषदों में भी प्रकट हुआ । फलतः मोक्षवाद की दृष्टि से, आत्म-तत्त्व का स्वरूपान्वेषण महत्त्व की चीज़ बन गया । (ख) ऋग्वेद तथा उपनिषदों में आत्मा विषयक विचारों की आलोचना त्मक दृष्टि : आत्मा विषयक चिन्तन का प्रारम्भ कब और कहाँ से हुआ, इसके सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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