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पहला अध्याय
भूमिका : भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व
(क) भारतीय दर्शन में आत्म-तत्त्व सम्बन्धी चिन्तन की मुख्यता :
आत्म-तत्त्व भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है । यहाँ हम इस बात का विचार करेंगे कि भारतीय आत्म-सम्बन्धी चिन्तन की प्रधान प्रेरणा और उसकी प्रकृति क्या है ? भारत में आत्म-चिन्तन की प्रधानता रही किन्तु ऐसा कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य संस्कृतियों में आत्मा के स्वरूप पर विचार नहीं हुआ । आत्मा के सम्बन्ध में विचार विश्व की दूसरी संस्कृतियों में भी हुआ और किसी-न-किसी रूप में आज भी हो रहा है । किन्तु इतर दर्शनों में आत्म-चिन्तन की समस्या उतनी प्रधान नहीं रही । उदाहरण के लिए हम पाश्चात्य दर्शन को ले सकते हैं । प्लेटो के दर्शन में प्रत्यय - जगत् की प्रधानता है । वहाँ श्रेयस् प्रत्यय ( Idea of the Good) का स्थान सर्वोपरि है । इसी प्रकार एरिस्टोटल ( अरस्तू ) के दर्शन में आकार ( Form ) और द्रव्य तत्त्व (Matter ) तथा गतिहीन गतिदाता ईश्वर, जो विश्व-प्रक्रिया का लक्ष्यभूत कारण भी है, प्रधान तत्त्व दिखाई देते हैं । देकार्त और स्पिनोजा के दर्शनों में भी द्रव्य की धारणा प्रधान है । ईसाई दर्शन आत्मा को अजर-अमर नहीं मानता, वहाँ ईश्वर-तत्त्व प्रधान है । ईश्वर ही आत्माओं का स्रष्टा है । इसी प्रकार हेगेल और ब्र ेडले के दर्शनों में निरपेक्ष प्रत्यय-तत्त्व या परब्रह्म प्रमुख धारणाएँ हैं । इस दृष्टि से भारतीय आत्मवाद की कतिपय निजी विशेषताएँ हैं जो, उदाहरण के लिए यूरोपीय दर्शन में, उस रूप में नहीं पाई जातीं । हमारा यह वक्तव्य क्रमशः समझा और समझाया जा सकेगा । संक्षेप में कहें तो भारतीय दर्शन का आत्मचिन्तन उसके मोक्षवाद से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है । इसका क्या अभिप्राय है ? आत्मा की कल्पना और उसके स्वरूप का विचार कई दृष्टियों से किया जा सकता है । ये समस्त दृष्टियाँ मानव-जीवन की व्याख्या के प्रयत्न में जन्म लेती हैं । उदाहरण के लिए मनुष्य ज्ञाता है, इसलिए आत्मा में ज्ञान-शक्ति का आरोप किया जाता है । हम कहते हैं कि आत्मा चेतन या चैतन्य रूप है । फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्त ने आत्मा का प्रधान व्यावर्तक गुण चिन्तन शक्ति या सोचना माना था । इसके विपरीत भौतिक द्रव्य का व्यावर्तक गुण है विस्तार
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