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आत्मा और कर्म-विपाक : २२१
एकजन्मवादी कहलाते हैं। इन सम्प्रदायों की यह मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा नष्ट नहीं होती है, वह न्याय के दिन तक प्रतीक्षा में रहती है और न्याय के दिन तत्सम्बन्धी देवता द्वारा उन्हें उनके कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक भेज देते हैं। पुनर्जन्म पर एकजन्मवादियों ने अनेक आक्षेप किये हैं, आक्षेपों का पुनर्जन्मवादियों ने निराकरण किया है, जो विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। संक्षेप में उन पर विचार करना तर्कसंगत होगा
१. पुनर्जन्म के विरोधी इस सिद्धान्त को भ्रान्तमूलक मानते हैं तथा अन्धविश्वास कहकर पुनर्जन्म-सम्बन्धी विचार का परिहास करते हैं । इस विषय में उनका तर्क है कि यदि पुनर्जन्म सत्य तथा यथार्थ सिद्धान्त होता तो पूर्वजन्म की अनुभूतियों का स्मरण समस्त जीवों को उसी प्रकार होना चाहिए, जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था की स्मृति वृद्धावस्था में होती है। इस आक्षेप का परिहार यह किया गया है कि स्मृति-शक्ति का सम्बन्ध हमारे दिमाग से है। वह मस्तिष्क नष्ट हो जाता है, इसलिए स्मृति नहीं होती है। दूसरी बात यह है कि पूर्वजन्म के संस्कार सूक्ष्म रूप में आत्मा के साथ निहित होते हैं, जो अवसर पाकर उबुद्ध हो जाते हैं। अतः यद्यपि पूर्वजन्म की सम्पूर्ण स्मृति एक साथ नहीं होती, मगर तत्सम्बन्धी कारण सामग्री मिलने पर स्मृति हो ही जाती है । तीसरी बात यह है कि पुनर्जन्म की स्मृति होने का कारण कर्मजनित फल है । सभी प्राणियों के कर्म समान न हो कर विचित्र होते हैं, इसलिए समस्त प्राणियों को पुनर्जन्म की स्मृति नहीं होती है । इसके अतिरिक्त लोकव्यवहार में भी यह देखा जाता है कि एक घटना को एक ही स्थान पर बहुत से व्यक्ति देखते सुनते हैं, लेकिन अनुभूत घटना की सबको एक तरह की स्मृति नहीं होती है। इसी प्रकार सभी को पुनर्जन्म की स्मृति नहीं होती है ।
पुनर्जन्म अन्धविश्वास नहीं है : प्रो० स्टीवेंसन का मत-पुनर्जन्म सिद्धांत अन्धविश्वास नहीं, बल्कि सत्य और यथार्थ सिद्धान्त है। इस विषय में वर्जीनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के चिकित्सा विज्ञान-विभाग के प्रोफेसर
१. प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा : भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ९१ । २. कर्मवाद और जन्मान्तर : हीरेन्द्रनाथ दत्त, पृ० ३१६ । ३. शास्त्रवार्तासमुच्चय : हरिभद्र, ११४० । ४. लोकेऽपि नैकतः स्थानादागतानां तथेक्ष्यते । अविशेषेण सर्वेषामनुभूतार्थसंस्मृतिः ।।
-वही, ११४१ ।,
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