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________________ २२० : जैनदर्शन में आत्म-विचार चार्वाक दर्शन को छोड़कर शेष सभी दार्शनिकों ने कर्मवाद की तरह पुनर्जन्म सिद्धान्त को महत्वपूर्ण मानकर उसकी व्याख्या की है। सभी भारतीय चिंतक इस बात से सहमत हैं कि अपने किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का फल समस्त प्राणियों को भोगना ही पड़ता है।' कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं, जिनका इसी जन्म में फल मिल जाता है और कुछ इस प्रकार के होते हैं, जिनका फल इस जन्म में नहीं मिलता है। जिन कर्मों का इस जन्म में फल नहीं मिलता है उनको भोगने के लिए कर्मसंयुक्त जीव पूर्ववर्ती स्थूलशरीर को छोड़कर नवीन शरीर धारण करता है। इस प्रकार पहले के शरीर को छोड़कर उत्तरवर्ती शरीर धारण करना-पुनर्जन्म कहलाता है ।२ पुनर्जन्म को पर्याय-बदलना, पुनर्भव, जन्मान्तर, प्रेत्यभाव और परलोक आदि भी कहते हैं । यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो आत्मा पूर्व पर्याय में होती है, बही उत्तर पर्याय में होती है। आत्मा का विनाश नहीं होता है, बल्कि शरीर का ही विनाश होता है। मृत्यु का अर्थ यह नहीं है कि आत्मा नष्ट हो जाती है, बल्कि इसका अर्थ स्थूलशरीर का विनाश है। अतः जिस प्रकार मनुष्य फटेपुराने कपड़े को छोड़कर नये वस्त्र को धारण कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीर को धारण कर लेता है । यही आत्मा का पुनर्जन्म कहलाता है।" पुनर्जन्म-विचार पर आक्षेप और परिहार-चार्वाक की भाँति यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम धर्म भी पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते हैं। ये सम्प्रदाय १. नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । कर्मवाद और जन्मान्तर, अनुवादक लल्ली प्रसाद पांडेय, पृ० २४ । २. जातश्चैव मृतश्चैव जन्मश्च पुनः पुनः । पुनश्चजन्मान्तरकर्मयोगात् स एव जीवः स्वपिति प्रबुद्धः ।-कैवल्योपनिषद्, पृ० १।१४ । ३. (क) प्रेत्यामुत्र भवान्तरे। - अमरकोष, ३।४।८ । (ख) मृत्वा पुनर्भवनं प्रेत्यभावः । -अष्टसहस्त्री, पृ० १६५ । (ग) प्रेत्यभावः परलोकः । -वही, पृ० ८८ । (घ) प्रेत्यभावो जन्मान्तर लक्षणः । -वही, पृ० १८१ । (ङ) पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः । -न्यायसूत्र, १।१।१९ । ४. मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्त जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो । -पञ्चास्तिकाय, गा० १७ । ५. गीता, २।२२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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