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आत्मा और कर्म-विपाक : २१९
(३) अदृष्ट के अचेतन होने से वह किसी बुद्धिमान की प्रेरणा से ही फल दे सकता है, यह कथन भी ठीक नहीं है, अन्यथा हम लोगों की प्रेरणा से भी अदृष्ट को फल देना चाहिए । अतः ईश्वर को प्रेरणा से अदृष्ट को फल देने की बात मानना ठीक नहीं है।' अदृष्ट किसी दूसरे की प्रेरणा के बिना अपनी योग्यता द्वारा ही जीवों को सुख-दुःख पहुँचाता है। ईश्वर को जीवों के अदष्ट का कर्ता मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जीव स्वयं अपने पुण्य-पाप आदि कर्मों का कर्ता है।
(४) जीव ईश्वर की प्रेरणा से शुभ-अशुभ कार्यों में प्रवृत्त होता है, यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि जीव पूर्वोपार्जित पुण्य-पाप कर्मों के उदय होने पर, शुभ-अशुभ परिणामों के अनुसार ही कार्य में प्रवृत्त होता है ।२
(५) ईश्वर को कर्मों का फलदाता मानना इसलिए भी ठीक नहीं है कि ऐसा मानने से उसे कुम्भकार की तरह का मानना पड़ेगा। कुम्भकार शरीरी होता है, मगर ईश्वर अशरीरी है, वह किसी को दिखलाई नहीं देता है । अतः मुक्त जीव की तरह अशरीरी ईश्वर जीवों के कर्म फलों का दाता कैसे हो सकता है । अतएव सिद्ध है कि ईश्वर कर्मों का फलदाता नहीं है।
(६) ईश्वर को शुभ-अशुभ कर्मों का फलदाता मानने पर किसी भी निन्दनीय कार्य का दण्ड किसी भी जीव को नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि वैसे कार्यों के लिए ईश्वर ने उन जीवों को प्रेरित किया है। मगर जीवों को हत्या आदि अपराध का दण्ड मिलता है। इससे सिद्ध है कि ईश्वर शुभ-अशुभ कर्मों का फलदाता नहीं है। इसके अतिरिक्त, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, हर्ता, सर्वज्ञ, नित्य, एक, ऐश्वर्यवान् मानना भी निरर्थक ही है। ___ अतः सिद्ध है कि ईश्वर कर्म-फल का दाता नहीं है । कर्म स्वयं फल देते हैं।
२. कर्म और पुनर्जन्म-प्रक्रिया (क) पुनर्जन्म का अर्थ एवं स्वरूप :
भारतीय दर्शन के इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि
१. अस्मदादीनामपि... । ततस्तत् परिकल्पनं व्यर्थमेव स्यात् ।
-विश्वतत्त्वप्रकाश : भावसेन विद्य, पृ० ५६ । २. वही, पृ० ५६। ३. अष्टसहस्री : विद्यानन्दी, पृ० २७१ । ४. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य :-प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० २६५-८४ । न्यायकुमुदचन्द्र, भाग १, पृ० ९७-१०९। अमितगतिश्रावकाचार, ४।७७८४ । महापुराण, ४।२२ । षड्दर्शनसमुच्चय, टी०, पृ० १६७-१८७ । आप्तपरीक्षा, का० ९।४२ ।
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