SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार जीव स्वर्ग या नरक में जाता है, ईश्वर की सहायता के बिना कोई भी जीव सुखदुःख पाने में समर्थ नहीं है' ।' बृहदारण्यकोपनिषद् में भी यही कहा गया है । ईश्वरवादियों ने ईश्वर का महत्व बढ़ाने के लिए उसे कर्मविधाता माना है । मगर बौद्ध आदि अनीश्वरवादी दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिकों को उपर्युक्त सिद्धान्त मान्य नहीं है, अर्थात् वे यह नहीं मानते कि शुभ-अशुभ कर्मों का फलदाता ईश्वर है । जैसा कि लिखा जा चुका है कि ईश्वरवादियों के यहाँ जिस कार्य के लिए ईश्वर की कल्पना की गयी है, उस रूप में कर्म को ही जैन दर्शन में ईश्वर कहा जा सकता है, क्योंकि उसी के अनुसार जीव विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है। दूसरी बात यह है कि मुक्त जीव ही सुखादि अनन्त चतुष्टयों से युक्त और कृतकृत्य होता है, इसलिए मुक्त जीव ही जैन सिद्धान्त में ईश्वर कहलाता है । कहा भी है : “केवलज्ञानादि गुण रूप ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण देवेन्द्र आदि जिसके पद की अभिलाषा और जिसकी आज्ञा का पालन करते हैं, वह परमात्मा ईश्वर होता है"।" अतः जैनों की ईश्वर-विषयक अवधारणा न्यायवैशेषिक आदि दर्शनों की ईश्वर-विषयक अवधारणा से भिन्न है । ईश्वर कर्मफल का प्रदाता नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की मान्यता निम्नांकित दोषों से दूषित है : (१) यदि ईश्वर को पूर्व-जन्म के कर्मों के शुभ-अशुभ फल का प्रदाता माना जाए, तो जीव के द्वारा किये गये सभी कर्म व्यर्थ हो जाएगें। (२) यदि ईश्वर जीवों को कर्मफल प्रदान करने के लिए उनके पाप-पुण्य के अनुसार सृष्टि करता है, तो ईश्वर को स्वतन्त्र कहना व्यर्थ हो जाएगा; क्योंकि ईश्वर कर्मफल देने में अदृष्ट की सहायता लेता है। अतः जीवों को अपने अदृष्ट के उदय से ही सुख-दुःख और साधन उपलब्ध होते हैं। इसलिए इस विषय में ईश्वर की इच्छा व्यर्थ है । १. स्याद्वादमञ्जरी : मल्लिषेण, श्लोक ६, पृ० ३० । २. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।४।२४ । ३. परमात्मप्रकाश, गा० १॥६६ । ४. ज्ञानार्णव, २११७ । ५. पञ्चसंग्रह, गाथा १४, पृ० ४७ । ६. स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयम् लभते शुभाशुभम् । __ परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटम्, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ -अमितगति : श्रावकाचार । ७. षड्दर्शनसमुच्चय, टीका, का० ४६, पृ० १८२-८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy