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________________ आत्मा और कर्म विपाक : २१७ कर्मों का फल परस्पर में नहीं बदल सकता है, अर्थात् ज्ञानावरणकर्म उदय में आकर ज्ञानशक्ति को कुंठित करने रूप ही फल देगा । इस प्रकार कर्म-फल की प्राप्ति को पारिभाषिक शब्दावली में 'स्वमुख' फल प्रदान प्रक्रिया कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि मूल कर्म प्रकृतियों का फल स्वमुख रूप ही प्राप्त होता है ।" दूसरी बात यह है कि प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ स्वमुख और परमुख दोनों प्रकार से फल देती हैं । तात्पर्य यह कि एक ही कर्म के भेदों में फल देना परस्पर में बदल सकता है । जैसे, सातावेदनीय कर्म असातावेदनीय रूप से फल दे सकता है । मगर आयु कर्म और मोहनीय कर्म परमुख रूप से फल प्रदान न करके सिर्फ स्वमुख रूप से ही फल प्रदान कर सकते हैं । मनुष्यायु कर्म का विपाक नरकायु रूप नहीं हो सकता । इसी प्रकार, दर्शनमोहनीय कर्म चारित्र - मोहनीय रूप से फल नहीं दे सकता है । २ प्रश्न : कर्म फल देने के बाद कर्म कहाँ रहते हैं ? क्या वे पुन: उदयावस्था में आ कर फल दे सकते हैं ? उत्तर : कर्म फल देने के पश्चात् आत्म- प्रदेशों से चिपके नहीं रहते हैं, बल्कि एक क्षण के बाद शीघ्र ही आत्मा से अलग हो जाते हैं । जिस प्रकार पका हुआ आम डाल से गिर कर पुन: उसमें नहीं लग सकता है, उसी प्रकार कर्म फल देने के बाद तत्काल आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं, अतः वे पुनः फल नहीं दे सकते हैं । जो कर्म फल दे चुकते हैं, उनका क्षय हो जाता है तथा वे कर्म-परमाणु आत्मा से विलग होकर और कर्म-पर्याय छोड़ कर अन्य अकर्मरूप पर्याय में परिवर्तित हो जाते हैं । कर्मों का कोई फलदाता नहीं है : कर्म-फल की प्राप्ति के विषय में न्याय-वैशेषिक, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि वैदिक मनीषियों के अतिरिक्त इस्लाम और ईसाई धर्म के विद्वानों की भी यही विचारधारा है कि कर्म स्वयं फल नहीं देता है, क्योंकि वह अचेतन है । अपना फल देने के लिए कर्म अचिन्तनीय शक्ति के अधीन है । जिस प्रकार निष्पक्ष, सर्वतन्त्र स्वतन्त्र न्यायाधीश निर्णय करके दोषी को दंड देता है, उसी प्रकार कर्मों का फल देने वाला सर्वशक्तिमान् ईश्वर है । वही जीवों को उनके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार फल देता है । कहा भी गया है 'ईश्वर द्वारा प्रेरित १. सर्वार्थसिद्धि, ८२१ । २. (क) पञ्चसंग्रह (प्रा० ), ४।४४९-५० । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ८।२१।१ । ३. ततश्च निर्जरा । तत्त्वार्थसूत्र, ८।२३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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