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________________ २१६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार यदि जीव के कर्मों का बन्ध शुभ परिणामों की प्रकर्षता पूर्वक होता है, तो शुभ प्रकृतियों का फल उत्कृष्ट और अशुभ प्रकृतियों का फल निकृष्ट मिलता है। इसी प्रकार अशुभ परिणामों की प्रकर्षता में बंधे अशुभ कर्मों का फल उत्कृष्ट और शुभ-कर्म-प्रकृतियों का फल निकृष्ट रूप से मिलता है । दूसरी बात यह है कि कर्मों का फल प्रदान करना बाह्य सामग्री पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में कर्म द्रव्य, क्षेत्र और काल-भाव के अनुसार ही फल देते हैं । यहाँ प्रश्न होता है कि क्या कर्म फल दिये बिना भी अलग होते हैं या नहीं ? आचार्य आशाधर कहते हैं कि यदि उदीयमान कर्मों को अनुकूल सामग्री नहीं मिलती है, तो बिना फल दिये ही उदय होकर कर्म आत्म-प्रदेशों से अलग हो जाते हैं । जिस प्रकार दंड-चक्रादि निमित्त कारणों के अभाव में मात्र मिट्टी से घड़ा नहीं बनता, उसी प्रकार सहकारी कारणों के अभाव में कर्म भी फल नहीं दे सकते हैं । यहाँ एक प्रश्न यह भी होता है कि क्या कर्म अपना स्थितिकाल पूरा होने पर हो फल देते हैं या स्थितिकाल पूरा होने के पहले भी फल दे सकते हैं । इसका उत्तर यह है कि यद्यपि कर्म स्थितिबन्ध (काल) के समाप्त होने पर फल प्रदान करते हैं, किन्तु जिस प्रकार असमय में आम आदि फलों को पाल आदि के द्वारा पका कर रस देने के योग्य कर दिया जाता है, उसी प्रकार स्थिति पूरी होने के पहले तपश्चरणादि के द्वारा कर्मों को पका देने पर वे अकाल में भी फल देना आरम्भ कर देते हैं । अतः कर्म यथाकाल और अयथाकाल रूप से फल प्रदान करते हैं। यहाँ ध्यातव्य बात यह है कि एक ही समय में बंधे हुए समस्त कर्म एक ही समय फल नहीं प्रदान करते हैं, बल्कि जिस क्रम से उनका उदय होगा, उसी क्रम से ही वे फल प्रदान करेंगे । . यहाँ एक प्रश्न यह भी होता है कि क्या एक कर्म दूसरे कर्म का फल दे सकता है ? उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए पूज्यपाद आदि आचार्य कहते हैं कि ज्ञानावरणादि आठों कर्म अपने नाम और स्वभाव के अनुसार ही फल देते हैं। इन १. (क) सर्वार्थसिद्धि, ८।२१, पृ० ३९८ । (ख) कसायपाहुड, गा० ५९।४६५ । २. भगवतीआराधना, (विजयोदयाटीका), गा० ११७०, पृ० ११५९ । ३. ज्ञानार्णव, ३५।२६-७ । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, २१५३।२ । ४. स यथा नाम । तत्त्वार्थसूत्र, ८।२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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