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आत्मा और कर्म-विपाक : २१५ (ग) कर्मविपाक-प्रक्रिया और ईश्वर :
कर्म-स्वरूप-विवेचन के बाद जिज्ञासा होती है कि शुभ-अशुभ कर्मों का फल किस प्रकार मिलता है ? क्या कर्म स्वयं फल प्रदान करते हैं या फल देने में किसी सर्वशक्तिमान् की अपेक्षा रखते हैं ? उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर अत्यन्त जटिल तथा दार्शनिक गुत्थियों में उलझा हुआ है तथा विस्तृत विवेचन की अपेक्षा रखता है। कर्म-फल-प्राप्ति परोक्ष होने के कारण विभिन्न भारतीय दार्शनिकों के विभिन्न मत हैं। कर्म-विपाक-प्रक्रिया प्रारम्भ करने के पूर्व कर्मविपाक का स्वरूप विचारणीय है ।
कर्मविपाक का अर्थ : 'विपाक' शब्द वि + पाक के मेल से बना है । 'वि' शब्द के विशिष्ट और विविध दोनों अर्थ होते हैं । 'पाक' का अर्थ पकना या पचना होता है। अतः विशिष्ट रूप से कर्मों के पकने को विपाक कहते हैं। कर्मों में कषायादि के अनुसार सुख-दुःख रूप अनेक प्रकार के फल देने की शक्ति का होना विपाक कहलाता है। आगमिक परिभाषावली में विपाक को अनुभव कहते हैं । २ संक्षेप में कहा जा सकता है कि उदय या उदीरणा के द्वारा कर्मफलों का प्राप्त होना विपाक है ।
कर्म स्वयं फल देते हैं : सांख्य, मीमांसा तथा बौद्ध दर्शनों की तरह जैन दार्शनिक मानते हैं कि कर्म स्वयं फल प्रदान करते हैं। वे अपना फल देने में परतन्त्र नहीं, बल्कि स्वतन्त्र हैं । जैन दर्शन के सिद्धान्तानुसार बंधे हुए कर्म अपनी स्थिति समाप्त करके उदयावस्था में आकर स्वयं फल प्रदान करते हैं । ३ पूज्यपाद ने भी कहा है कि कर्म बंध कर शीघ्र फल देना आरम्भ नहीं करते, अपितु जिस प्रकार भोजन तुरन्त न पचकर जठराग्नि की तीव्रता और मंदता के अनुसार पचता है, उसी प्रकार कर्मों का विपाक कषायों की तीव्रता या मंदता के अनुसार होता है। अतः कर्मों का फल देना उसके कषाय पर ही निर्भर है। यदि तीव्र कषाय-पूर्वक कर्मों का आस्रव हुआ है, तो कर्म कुछ समय बाद शीघ्र ही अत्यधिक प्रबल रूप से फल देना आरम्भ कर देते हैं और मंद कषाय पूर्वक कर्मों के बंधने से कर्म का विपाक देर से होता है । १. विशिष्ट पाको नाना विधो वा विपाक : । सर्वार्थसिद्धि, ८।२१, पृ० ३९८ । २. विपाको अनुभवः । तत्त्वार्थसूत्र, ८१२१; मूलाचार : गा० १२४० । ३. (क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ३१९ ।
(ख) पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन धर्म, पृ० १४६ । (ग) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), जीवतत्त्वप्रबोधिनीटीका, गा० ८, पृ० २९ ।
(घ) समयसार, गा० ४५ । ४. सर्वार्थसिद्धि, ८१२, पृ० ३७७ ।
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