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२१४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार ___ सर्वघाती कर्म : जो कर्म आत्मा के गुणों का सम्पूर्ण रूप से विनाश करते हैं अर्थात् आत्म-गुणों पर आच्छादित होकर उन्हें किंचित् मात्र भी व्यक्त नहीं होने देते हैं, वे कर्म सर्वघाती कर्म कहलाते हैं।'
देशघाती कर्म : जो कर्म आत्मा के गुणों को अंश रूप से आच्छादित करते है, वे देशघाती कर्म कहलाते हैं । (आ) अघाती कर्म :
घाती कर्म से विपरीत स्वभाव वाले कर्म अघाती कर्म कहलाते हैं, अर्थात् उदयावस्था में आने के बावजूद जिस कर्म में आत्मा के गुणों का विनाश करने की शक्ति नहीं होती, वह अघाती कर्म कहलाता है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म-ये चार कर्म अघाती कर्म कहलाते हैं। इन चारों के भेद की अपेक्षा से अघाती कर्म १०१ प्रकार के होते हैं। शुभ-अशुभ की अपेक्षा से कर्म के भेद :
__ आस्रव शुभ-अशुभ रूप होता है, इसलिए इस दृष्टि से कम दो प्रकार के होते हैं-पुण्य-कर्म और पाप-कर्म । शुभास्रव से बंधने वाला कर्म पुण्य-कर्म और अशुभास्रव से बंधने वाला कर्म पाप-कर्म कहलाता है।"
पुण्य-कर्म : सातावेदनीय, तीन आयु (नरकायु के अलावा), उच्च गोत्र और नामकर्म, अर्थात् मनुष्यगति, देवगति, पचेन्द्रिय जाति, पांच शरीर, तीनों अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, वज्रऋषभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, देव गत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, आतप, त्रसचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, आदेय, यशस्कीति, तीर्थंकर इस प्रकार ४२ कर्म-प्रकृतियाँ पुण्य-कर्म हैं । ६
पाप-कर्म : उमास्वामी ने उपर्युक्त घाती कर्मों का उल्लेख करके शेष कर्मों को पाप-कर्म कहा है।
१. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० ३९ एवं १८० । पञ्चसंग्रह, ( प्रा० ), गा०
४८३ । २. (क) द्रव्यसंग्रह, टीका, गा० ३४ ।
(ख) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० ४०। ३. पञ्चसंग्रह (प्रा०), ४८४ गाथा । ४. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० ९ । ५. शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य-तत्त्वार्थसूत्र, ६।३ । ६. वही, ८।२५ । ७. वही, ८।२६ ।
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