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आत्मा और कर्म-विपाक : २१३ (क) उच्च गोत्र : इसके उदय से जीव पूजित कुलों में जन्म लेता है। आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, दूसरों के गुणों को प्रकट करना, उत्कृष्ट गुण वालों के प्रति नम्रता आदि उच्च गोत्र के आस्रव के कारण हैं।'
(ख) नीच गोत्र : निदित कुल में जन्म लेना, नीच गोत्र कहलाता है । परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, दूसरों में विद्यमान गुणों को प्रगट न करना और अपने में असत् गुणों को कहना, ये नीच गोत्र के आस्रव के कारण हैं ।२
गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम है। ८. अन्तराय कर्म :
जो कर्म विघ्न डालता है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। पूज्यपाद ने कहा है कि दानादि परिणाम के व्याघात का कारण होने से इस कर्म को अन्तराय कर्म कहते हैं । यह कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है ।
इस कर्म की उपमा राजा के भंडारी से दो गयी है । जिस प्रकार राजा की आज्ञा होने पर भी भंडारी दान देने में बाधा उपस्थित कर देता है, उसी प्रकार इस कर्म के उदय से दानादि में अवरोध (बाधा) उत्पन्न हो जाता है । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय-ये इस कर्म के पांच भेद हैं। घाती-अघाती की अपेक्षा से कर्म के भेद :
. उपर्युक्त कर्मों का वर्गीकरण दो भागों में किया गया है-घाती कर्म और अघाती कर्म। जो कर्म आत्मा की स्वाभाविक शक्ति, अर्थात् केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन, अनन्तवीर्य, क्षायिक-सम्यक्त्व, क्षायिक-चारित्र, क्षायिक-दान तथा क्षायोपशमिक गुणों का घात करते हैं, नष्ट करते हैं, वे घाती कर्म कहलाते हैं ।" ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घाती कर्म हैं । ६ (अ) घाती कर्म के भेद :
घाती कर्म दो प्रकार के हैं-सर्वघाती कर्म और देशघाती कर्म । १. तत्त्वार्थसूत्र, ६।२६ । २. वही, ६।२५। ३. सर्वार्थसिद्धि, ८1१३, पृ० ३९४ । ४. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा० ७ । ५. धवला : पु० ७, खं० २, भा० १, सू० १५, पृ० ६२ । ६. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गाथा ९। ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।२३।७ ।
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