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२१२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
३५. सुस्वर नामकर्म : इसके उदय से जीव का स्वर अच्छा होता है । ३६. दु:स्वर नामकमं : इसके उदय से स्वर कर्कश होता है ।
३७. आदेय नामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव आदरणीय होता है । पूज्यपादाचार्य ने प्रभायुक्त शरीर का कारण आदेय नामकर्म को कहा है 1
३८. अनादेय नामकर्म : इसके उदय से अच्छा कार्य करने पर भी गौरव प्राप्त नहीं होता है । यह निष्प्रभ शरीर का कारण है ।
३९. यशःकीति नामकर्म : इसके उदय से जीव को यश मिलता है । ४०. अयश: कोति नामकर्म : इसके उदय से अपयश मिलता है । ४१. निर्माण नामकर्म : इसके उदय से अङ्गोपाङ्ग का यथास्थान निर्माण होता है ।
४२. तीर्थङ्कर नामकर्म जिस कर्म के उदय से जीव त्रिलोक में पूजा जाता है, उसे तीर्थङ्कर नामकर्म कहते हैं । इस कर्म से युक्त जीव बारह अंगों की रचना करता है ।
नामकर्म के विस्तार से ९३ भेद और १०३ भेद होते हैं । नामकर्म की न्यूनतम स्थिति ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट २० क्रोडाक्रोडी सागरोपम है । ७. गोत्र कर्म :
गोत्र, कुल, वंश और संतान को घवला में एकार्थवाचक कहा गया है । जिस कर्म के उदय से जीव ऊँच-नीच कहलाता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं ।" इस कर्म की तुलना कुम्भकार से दी गयी है। जिस प्रकार कुम्भकार छोटे-बड़े अनेक प्रकार के घड़े बनाता है, उसी प्रकार गोत्र कर्म के उदय से जीव ऊँच एवं नीच कुल में उत्पन्न होता है । इस कर्म के दो भेद हैं ..
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१. धवला, ६।१।९-११, सू० २. सर्वार्थसिद्धि, ८ ११, पृ० ३९२ । ३. वही ।
२८, पृ० ६५ ।
४. धवला, ६।१।९-११, सूत्र ३०, पृ० ६७ ।
५. सर्वार्थसिद्धि ८।११, पृ० ३९२ ।
६. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड), गा० २२ |
७. धवला, ६।१।९-११, सू० ४५, पृ० ७७ । ८. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।३।४, पृ० ५९७ ॥
९. द्रव्यसंग्रह, टीका, ३३, पृ० ९३ । १०. तत्त्वार्थ सूत्र, ८।१२ ।
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