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आत्मा और कर्म-विपाक : २११
१४. उपघात नामकर्म : स्वयं प्राप्त होने वाला नामकर्म घात, उपघात या आत्मघात कहलाता है। इस कर्म के उदय से जीव अपने विकृत अवयवों से पीड़ा पाता है।'
१५. परघात नामकर्म : दुसरे जीवों के घात को परघात कहते हैं । परघात कर्म के उदय से जीव के शरीर में पर का घात करने के लिए पुद्गल निष्पन्न होते हैं । जैसे सपं के दाढों में विष, सिंहादि के पास दाँत आदि ।
१६. आनुपूर्वी नामकर्म : इसके उदय से पूर्व शरीर का आकार नष्ट नहीं होता है।
१७. उच्छ्वास नामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव उच्छ्वास लेता है।
१८. आतप नामकर्म : जिस कर्म के उदय से शरीर में उष्ण प्रकाश होता है, उसे आतप नामकर्म कहते हैं । ५
१९. उद्योत नामकर्म : जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में प्रकाश होता है, उसे उद्योत नामकर्म कहते हैं। जैसे चन्द्रकांतमणि और जुगन में होने वाला प्रकाश ।
२०. विहायोगति नामकर्म : जिस कर्म के उदय से भूमि का आश्रय लेकर या बिना आश्रय के जीवों का आकाश में गमन होता है, उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं । प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त विहायोगति-ये दो इस कर्म के
२१-३०. त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर नामकर्म का अर्थ लिखा जा चुका है।
३१. शुभ नामकर्म : जिसके उदय से प्रशस्त अंगोपांग हो । ३२. अशुभ नामकर्म : जिसके उदय से अप्रशस्त अगोपांग हो । ३३. सुभग नामकर्म : जिसके उदय से अन्य प्राणी प्रीत करें।
३४. दुर्भग नामकर्म : जिसके उदय से गुणों से युक्त जीव भी अन्य को प्रिय नहीं लगता है।
१. धवला, ६।१।९-११, सू० २८, पृ० ५९ । २. वही । ३. सर्वार्थसिद्धि, ८१११, पृ० ३९० । ४. वही, पृ० ३९१ । ५. वही। ६. वही। ७. धवला, पु० १३, खं० ५, भा० ५, सू० १०१, पृ० ३६५ ।
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