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२१० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
(आ) वज्रनाराच संहनन : जिस कर्म के उदय से अस्थिबन्धन वज्रऋषभ से रहित होता है, वह वज्रनाराच संहनन कहलाता है ।
(इ) नाराच संहनन : जिस कर्म के उदय से कीलों और हड्डियों की संधियाँ वज्र से रहित होतो हैं, उसे नाराच संहनन कहते हैं ।
(ई) अर्धनाराच संहनन : जिस कर्म के उदय से हड्डियों की संधियाँ एक तरफ नाराचयुक्त, दूसरी तरफ नाराचरहित होती हैं, उसे अर्धनाराच संह कहते हैं ।
( उ ) कीलक संहनन : जिस कर्म के उदय से दोनों हड्डियों के छोरों में वज्ररहित कीलें लगी हों, उसे कीलक संहनन कहते हैं ।
(ऊ) असंप्राप्तास्पाटिका संहनन : यह वह संहनन हैं, जिसके उदय से भीतर हड्डियों में सर्प की तरह परस्पर बंध नहीं होता है, सिर्फ बाहर से वह सिरा, स्नायु, मांस आदि से लिपट कर संघटित होती हैं ।
९. वर्ण नामकर्म : जिस नामकर्म के उदय से जीव के शरीर में वर्ण नामकर्म
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की उत्पत्ति होती है, उसे वर्ण नामक्रम कहते हैं ।' और शुक्ल — ये वर्ण नामकर्म के पाँच भेद हैं ।
कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र
१०. गंध नामकर्म : जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में प्रतिनियत गंध उत्पन्न होती है, उसे गंध नामकर्म कहते हैं । इसके दो भेद हैं-सुरभि गंध और दुरभि गंध |
११. रस नामकर्म : जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में जाति प्रतिनियत तिक्तादि रस उत्पन्न होता है, उसे रस नामकर्म कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं- तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर ।
१२. स्पर्श नामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव के शरीर में जाति प्रतिइस कर्म के आठ भेद हैं— कर्कश, मृदु, गुरु,
नियत स्पर्श उत्पन्न होता है । लघु, स्निग्ध, रुक्ष, शीत, उष्ण ।
१३. अगुरुलघु नामकर्म : इस कर्म के उदय से जीव का शरीर न तो लोहे के पिंड के समान अत्यन्त भारी होता है और न अर्क की रूई के समान हल्का होता है । "
१. सर्वार्थसिद्धि, ८।११, पृ० ३९० ।
२. धवला, ६।१।९-११ सू० २८, पृ० ५५ ।
३.
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४. वहा ।
५. सर्वार्थसिद्धि, ८।११, पृ० ३९१ ।
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