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________________ आत्मा और कर्म-विपाक : २०९ (क) समचतुरस्त्र संस्थान : जिस कर्म के उदय से ऊपर से नीचे तक समकोण की तरह समानुपातिक और सुन्दर शरीर के अवयवों की रचना होती है, वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है। (ख) न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान : जिस कर्म के उदय से शरीर वट के वृक्ष की तरह नीचे सूक्ष्म और ऊपर भारी (विशाल) होता है, उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान कहते हैं। (ग) स्वाति संस्थान : जिस कर्म के उदय से शरीर की रचना स्वाति (वल्मीक या शाल्मली वृक्ष) की तरह नाभि से नीचे विशाल और ऊपर सूक्ष्म होती है, उसे स्वाति संस्थान कहते हैं ।२ (घ) कुब्ज संस्थान : जिस कर्म के उदय से शरीर कुबड़ा बन जाता है, उसे कुब्ज संस्थान कहते हैं । (ङ) वामन संस्थान : जिस कर्म के उदय से अंग-उपांग छोटे और शरीर बड़ा होता है, उस बौनी शरीर-रचना को वामन संस्थान कहते हैं। (च) हुंडक संस्थान : विषम पाषाण से भरी हुई मशक के समान विषम आकार को हुँड कहते हैं । हुँड के समान अंग-उपांगों को रचना जिस कर्म के उदय से होती है, वह हुँडक संस्थान कहलाता है।" ८-संहनन नामकर्म : जिस कर्म के उदय से अस्थिबन्ध की विशिष्ट रचना होती है, वह संहनन नामकर्म कहलाता है । संहनन के भेद : संहनन नामकर्म के निम्नांकित छह भेद होते है - (अ) वज्रऋषभनाराच संहनन : वेष्टन या वलय को ऋषभ कहते हैं । वज्र के समान कठोर (अभेद) होने को वज्र ऋषभ कहते हैं । वज्र के समान नाराच (कीलें) होना वज्र-नाराच है । जिस कर्म के उदय से वज्रमय हड्डियां वज्रमय वेष्टन से वेष्टित और वज्रमय नाराच से कोलित हों, वह वज्रऋषभनाराच संहनन कहलाता है। १. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।११, पृ० ३९० । २. (क) वही, पृ० ५७७ । (ख) धवला : ६।१।९-११, सू० ३४, पृ० ७१ । ३. तत्त्वाथवार्तिक, ८।११।८, पृ० ५७७ । ४. वही। ५. धवला, ६।१।९-११, सू० ३४, पृ०७२ । ६. यदोदयादस्थिबन्ध विशेषो भवति-- सर्वार्थसिद्धि, ८।११, १० ३९० । ७. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।११, ९, पृ० ५७७ । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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