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________________ आत्मा और कर्म-विपाक : २०७ देवायु के आस्रव के कारण : सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप तथा सम्यक्त्व देवायु के आस्रव के कारण हैं । शील और व्रत रहित होना समस्त आयु के बंध के कारण हैं।' ६ नाम कर्म : सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद ने नाम कर्म की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है कि जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है, वह नाम कर्म कहलाता है ।२ नारक तिर्यञ्च, मनुष्य और देवरूप नामकरण करना, नाम कर्म का स्वभाव है । कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है कि नामकर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी अथवा देवरूप करता है। गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में भी कहा गया है कि जिस कर्म से जीव में गति आदि के भेद उत्पन्न हों, जो देहादि की भिन्नता का कारण हो अथवा जिसके कारण गत्यन्तर जैसे परिणमन हों, वह नाम कर्म कहलाता है। नाम कर्म की उपमा चित्रकार से दी गयी है । जिस प्रकार कुशल चित्रकार अपनी कल्पना से विभिन्न प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण आदि नाना प्रकार की रचना करता है। नाम कर्म के अस्तित्व की सिद्धि : वीरसेन ने कर्म का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा है कि कारण से ही कार्य की सिद्धि होती है। बिना.कारण के कार्य किसी प्रकार सम्भव नहीं है । शरीर, संस्थान, वर्ण आदि अनेक कार्य सभी जीवों में दिखलाई पड़ते हैं। ये कार्य ज्ञानावरणादि अन्य कर्म के कारण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनका ऐसा करना स्वभाव नहीं है। जितने कार्य हैं उनके अलग-अलग कारणभूत कर्म भी होने चाहिए। अतः शरीर, संस्थान आदि के कारण के रूप में नामकर्म का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। १. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१५-२१ । २. नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम--सर्वार्थसिद्धि, ८१४, पृ० ३८१ । ३. सर्वार्थसिद्धि, ८१४, पृ० ३८१ । ४. प्रवचनसार, गा० २।२५ । ५. गोम्मटसार (कमकाण्ड), गा० १२ । ६. (क) नाना मिनोति निर्वतयतीति नाम ।-धवला, ६।१।९-११, सू० १०, (ख) स्थानांग, २।४।१०५ टीका, जनदर्शन स्व० वि० १० ४७२ में उद्धत । ७. धवला-(क) ६।१।९-११, सू० १०, पृ० १३ । (ख) वही, ७२१, सूत्र १९, पृ० ७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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