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आत्मा और कर्म-विपाक : २०५ है। मोहनीयकर्म कारण है और ज्ञानावरण कर्म कार्य है। अतः इनमें बीज और अंकुर की तरह कारण-कार्य की अपेक्षा से भेद है।' __ मोहनीय कर्म के भेद : मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है२-(क) दर्शन मोहनीय, (ख) चारित्र मोहनीय । आप्त या आत्मा, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं और दर्शन को जो मोहित करता है या विपरीत करता है, वह दर्शन मोहनीय कर्म है। इस कर्म के उदय से आत्मा का विवेक मदोन्मत्त पुरुष की बुद्धि की तरह नष्ट हो जाता है। दर्शन मोहनीय कर्म के कारण जीव अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय और धर्म को अधर्म समझने लगता है।
केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव का अवर्णवाद करने से५ अर्थात उनमें जो दोष नहीं हैं, उन दोषों को उनमें कहने से और सत्य मोक्ष मार्ग को दूषित एवं असत्य मोक्ष मार्ग को सत्य बतलाने से, दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है। यह कर्म तीन प्रकार का है-(क) सम्यक्त्व, (ख) मिथ्यात्व, (ग) सम्यग्मिथ्यात्व।
चारित्रमोहनीय कर्म : मिथ्यात्व, असंयम और कषाय पाप की क्रियाएँ हैं। इन पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को जैन आचार्यों ने चारित्र कहा है। जो कर्म इस चारित्र को आच्छादित करता है अर्थात् मोहित करता है, उसे चारित्रमोहनीयकर्म कहते हैं। इस कर्म के उदय से आत्मा का चारित्र गुण प्रकट नहीं हो पाता है। __चारित्रमोहनीय कर्म के भेद : (क) कषाय और (ख) नो-कषाय की अपेक्षा चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का है - १. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।४।५, पृ० ५६८ । २. षट्खण्डागम, ६।१।९-११, सूत्र २० । ३. धवला, ६।१।९-११, सूत्र २१, पृ० ३८ । ४. तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह । ___ अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुट्टक् ।-पंचाध्यायी, २१९९० । ५. तत्वार्थसूत्र, ६.१३ । ६. सर्वार्थसिद्धि, ६।१३, ५० ३३१ । ७. तत्त्वार्थसार, ४।२८ । ८. पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्। तं मोहेइ आवारेदि त्ति चारित्रमोहणीयं ।-धवला, ६।१।९-११, सू० २२,
१० ४० । ९. (क) षट्खण्डागम, ६।१।९-११, सूत्र २२ । (ख) उत्तराध्ययन सूत्र, ३१।१० ।
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