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________________ २०४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं।' ४. मोहनीय कर्म : मोहनीय कर्म जीव के संसार का मूल कारण है, इसलिए इसे समस्त कर्मों का राजा कहा गया है। धवला में वीरसेन ने कहा है कि समस्त दुःखों की प्राप्ति मोहनीयकर्म के निमित्त से होती है इसलिए उसे शत्रु कहते हैं। अन्य सभी कर्म मोहनीय कर्म के अधीन हैं, मोह के बिना ज्ञानावरणादि समस्त कर्म अपना-अपना कार्य नहीं कर सकते हैं ।२ पूज्यपाद ने कहा है कि जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है, वह मोहनीय कर्म है। यह कर्म आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न कर देता है। जिस प्रकार मदिरापान करने से मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है, उसे स्व और पर का सम्यग्ज्ञान नहीं रहता है, हेय-उपादेय, हिताहित के विवेक से रहित हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से तत्व-अतत्त्व में भेद करने में जीव असमर्थ हो जाता है। जो मोहित करे वह मोहनीय कर्म है, तो यहाँ प्रश्न होता है कि धतूरा, मदिरा और भार्या भी तो मोहित करती है, इसलिए उन्हें भी मोहनीय कहना चाहिए ? यहाँ मोहनीय नामक द्रव्यकर्म का विवेचन हो रहा है, इसलिए धतूरा आदि को मोहनीय कहना ठीक नहीं है ।" मोहनीय और ज्ञानावरण कर्म में अन्तर : अकलंकदेव ने मोहनीय और ज्ञानावरण कर्म को एक न मानने का कारण बतलाते हुए कहा है कि मोहनीय कर्म में पदार्थ का यथार्थ ज्ञान रहने पर भी उसका विपरीत ज्ञान होता है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म के उदय से पदार्थ का सम्यक् अथवा मिथ्या ज्ञान नहीं होता १. तत्त्वार्थसूत्र, ६।११।१२ । २. धवला, १११११, सूत्र १, पृ० ४३ । ३. सर्वार्थसिद्धि, ८१४, पृ० ३८० । ४. (क) जह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ । तह मोहेण-विमूढो जीवो उ परव्वसो होइ॥-स्थानांग २।४।१०५, टीका । (ख) मद्यपानवद्धयोपादेयविचारविकलता। - द्रव्यसंग्रह, टीका, गाथा ३३, पृ० ३८। ५. धवला, ६।१।९-११ सू० ८, पृ० ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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