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________________ आत्मा और कर्म विपाक : २०३ गृद्धि दर्शनावरण कर्म कहा है । गोम्मटसार में कहा है कि इस कर्म के उदय से जीव नींद में अनेक कार्य करता है, बोलता है, लेकिन उसे कुछ भी ज्ञान नहीं हो पाता है । धवला में भी यही कहा गया है । ३ ज्ञानावरण कर्म की तरह प्रदोष आदि कारणों से दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है । ३. वेदनीय कर्म : जिसके द्वारा वेदन अर्थात अनुभव होता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि वेदनीय कर्म की प्रकृति सुख-दुःख का संवेदन करना है ।" वीरसेन ने भी जीव के सुख-दुःख के उत्पादक कर्म को वेदनीय कर्म कहा है ।" वेदनीय कर्म के दो भेद : वेदनीय कर्म दो प्रकार का होता है - (१) सातावेदनीय और ( २ ) असातावेदनीय । सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव को शरीर और मन सम्बन्धी सुख का अनुभव होता है और असातावेदनीय कर्म के उदय से अनेक प्रकार की नरकादि गतियों में कायिका, मानसिक और जन्म, जरा, मरण, प्रिय-वियोग, अप्रिय संयोग, व्याधि, वध तथा बंधन आदि से उत्पन्न दुःख का अनुभव होता है । वेदनीय कर्म की उपमा शहदयुक्त तलवार से की गयी है । जिस प्रकार तलवार की धार में लगी हुई मधु के चाटने से सुख का अनुभव होता है, उसी प्रकार सातावेदनीय कर्म के उदय से सुख का अनुभव होता है । मधुसंयुक्त तलवार के चाटने से जिह्वा के कट जाने पर जिस प्रकार दुःख का अनुभव होता है, उसी प्रकार असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख का अनुभव होता है । साता-असातावेदनीय कर्म - आस्रव के कारण : जीव - अनुकम्पा, व्रती - अनुकम्पा, दान, सरागसंयम आदि योग, क्षान्ति और शौच सातावेदनीय कर्म के कारण हैं और अपने तथा पर में अथवा १. सर्वार्थसिद्धि, ८ ७, पृ० ३८३ । २. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ), गाथा २३ । ३. घवला, १३५१५, सू० ८५, पृ० ३५४ । ४. सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, ८३, पृ० ३७९ । ५. धवला, पु० १, खं०५, भा०५, सूत्र १९, पृ० २०८ । ६. ( क ) सर्वार्थसिद्धि, ८८, पू० ३८४ । ( ख ) तत्त्वार्थवार्तिक, ८|८|१-२ पृ० ५७३ । ७. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), गा० २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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