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१९८ : जेनदर्शन में आत्म-विचार
आहार, अग्राह्य, तैजस, अग्राह्य, भाषा, अग्राह्य, मनो, अग्राह्य, कार्मण, ध्रुव, सांतर निरंतर, शून्य, प्रत्येकशरीर, ध्रुवशून्य, बादरनिगोद, शून्य, सूक्ष्मनिगोद, नभ और महास्कन्ध पुद्गल वर्गणा के तेईस भेद हैं । षट्खण्डागम की टीका में २३ प्रकार की वर्गणाओं में से चार कार्मण वर्गणा ( कार्मण, भाषा, मन और तैजस ) को कर्म और शेष १९ वर्गणाओं को नोकर्म कहा है ।" यहाँ वर्गणा से तात्पर्य समान वाले परमाणुपिण्ड से है ।
(ख) कर्म के भेद और उनकी समीक्षा :
भारतीय दर्शन में विभिन्न दार्शनिक परम्परा में कर्म के विभिन्न भेद उपलब्ध हैं । वैदिक-दर्शन में कर्म के तीन भेद किये गये हैं
१. संचित कर्म : पूर्व जन्म में किये गये जिन कर्मों का अभी फल मिलना आरम्भ नहीं हुआ है, वे संचित कर्म कहलाते हैं ।
२. प्रारब्ध कर्म : जिन संचित कर्मों का फल मिलना आरम्भ हो गया है, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं ।
३. क्रियमाण कर्म : जो कर्म वर्तमान समय में किये जा रहे हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं । योगसूत्र में कर्म के तीन भेद--कृष्ण, शुक्ल और शुक्ल-कृष्ण किये गये हैं । न्यायमञ्जरी में शुभ कर्म और अशुभ कर्म की अपेक्षा कर्म के दो भेद भी उपलब्ध हैं । ३
(अ) जैन दर्शन में कर्म के भेद :
जैन धर्म में कर्म का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है । सामान्य की अपेक्षा कर्म एक ही प्रकार का है । भाव कर्म, और द्रव्य कर्म की अपेक्षा कर्म के दो भेद हैं ।
( १ ) भाव कर्म : राग-द्वेषादि जीव के विकार भावकर्म, कहलाते हैं । "
(२) द्रव्य कर्म : राग-द्वेषादि भाव कर्मों के निमित्त से आत्मा के साथ
बंधने वाले अचेतन पुद्गल - परमाणु, द्रव्य-कर्म कहलाते हैं ।
१. ( क ) धवला, पु० १४, खंड ५, भाग ६, सूत्र ७१, पृ० ५२ ।
(ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), गा० ५९४-५९५ ।
२. योगसूत्र, ४।७ ॥
३ न्यायमञ्जरी, पृ० ४७२ ।
४. कर्म प्रकृति, गा० ६ । (ख) गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), ६ । ५. प्रवचनसार, १।८४ एवं ८८ । (ख) उत्तराध्ययन, ३२।७ । ६. तत्त्वार्थसार, ५।२४१९ ।
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