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आत्मा और कर्म-विपाक : १९९ स्वभाव एवं शक्ति की अपेक्षा कर्म के आठ भेद :
आस्रव के द्वारा आये हुए कर्म के पुद्गल-परमाणु आत्मा से बंध कर विविध स्वभाव एवं शक्ति वाले हो जाते हैं। इस दृष्टि से कर्म के आठ भेद हैं१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय ।'
यहाँ प्रश्न होता है कि एक प्रकार की कार्मणवर्गणा आठ प्रकार की कैसे हो जाती है ?
उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में जैन आचार्यों ने बतलाया है कि जिस प्रकार एक ही बार खाया गया भोजन पच कर खून, रस, मांस, मज्जा, मल, मूत्र, वात, पित्त, श्लेष्मा आदि अनेक रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा के परिणमन से एक ही बार में ग्रहण किये गये पुद्गल-परमाणु ज्ञानावरणादि विभिन्न रूपों में परिणत हो जाते हैं । धवलाकार ने कहा भी है : “मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग रूप प्रत्ययों के आश्रय से उत्पन्न आठ शक्तियों से संयुक्त जीव के सम्बन्ध से कार्मण पुद्गल-स्कन्धों का आठ कर्मों के आकार से परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है ।" इसी बात को स्पष्ट करते हुए अकलंक देव ने कहा है कि "जिस प्रकार मेघ का जल पात्र-विशेष में गिर कर विभिन्न रसों में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान-शक्ति का अवरोध करने से ज्ञानावरण सामान्यतः एक होकर भी श्रुतावरण आदि रूपों में परिवर्तित हो जाता है।" इसके अतिरिक्त निम्नांकित कारणों से भी एक ही पुद्गल कर्मवर्गणा विविध रूप हो जाती है
१. जिस प्रकार एक ही अग्नि में जलाने, पकाने आदि की शक्ति होती है, उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्म-पुद्गल में सुख-दुःखादि रूप होने की शक्ति होती है।
२. यद्यपि द्रव्य-दृष्टि से कर्म पुद्गल एक ही प्रकार का होता है, फिर भी पर्यायों की अपेक्षा उसके अनेक प्रकार होने में कोई विरोध नहीं है ।
१. उत्तराध्ययन, ३३।२-३ । तत्त्वार्थसूत्र, ८।४। २. समयसार, गा० १७६-८० । (ख) सर्वार्थसिद्धि, ८।४ ।
पृ० ३८१ । तत्त्वार्थवार्तिक, ८।४।३ । ३. धवला, पु० १२, खं० ४, भा० ८, सू० ११, पृ० २८७ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।४।७। ५. वही, ८।४।९-१४ ।
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