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________________ आत्मा और कर्म विपाक : १९७ ८. उपशमन : उपशमन का अर्थ है, दबाना । अतः कर्मों की उदय - उदीरणा को रोक देना, उपशमन कहलाता है । " ९. निर्धात्ति : कर्म की जिस अवस्था में उद्वर्त्तना और अपवर्त्तना हो सके, लेकिन उदीरणा और संक्रमण न हो, वह अवस्था निघत्त या निधत्ति कहलाती है । १०. निकाचन : कर्म का जिस रूप में बन्ध हुआ, उसका उसी रूप में भोगना अर्थात् उद्वर्त्तना, अपवर्त्तना, संक्रमण और उदीरणा अवस्थाओं का न होना, निकाचनावस्था कहलाती है । ११. आबाधावस्था : कर्म बन्ध के समय तुरन्त फल न देना, आबाधावस्था कहलाती है । लिखा जा चुका है, अतः कर्म और नो-कर्म में भेद : कर्म का अर्थ पहले यहाँ उसकी पुनरावृत्ति करना उचित नहीं है । 'नो' शब्द के दो अर्थ होते हैं, निषेध-रूप एवं किचित् या ईषत् । यहाँ पर 'नो' का अर्थ किंचित्, ही है । अतः नोकर्म का अर्थ हुआ — किचित् कर्म । तात्पर्य यह है कि कर्म आत्मा की शक्ति का घात करता है, किन्तु नोकर्म आत्मा की शक्ति का घात नहीं करता है | अतः कर्म से विपरीत लक्षण होने से नोकर्म को अकर्म भी कहा जा सकता है ।' 'अध्यात्मरहस्य' में कहा है – संसारी जीवों के अंगादिक ( शरीर और पर्याप्तियों) की वृद्धि हानि के लिए पुद्गल - परमाणुओं का समूह कर्मों के उदय से परिणत होता है, वह नोकर्म कहलाता है ।" अतः औदारिक वैक्रियिक और आहारिक शरीर तथा छह आहारिक पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने को नोकर्म कहते हैं । 'गोम्मटसार' ( जीवकाण्ड ) में कार्मण शरीर को कर्म और शेष शरीरों को नो-कर्म कहा है; क्योंकि औदारिकादि शरीर कर्मशरीर के सहकारी होते हैं । अणु, संख्याताणु, असंख्याताणु अनन्ताणु, १. धवला, पु० ९, खं० ४, भा० १, सू० ४५, पृ० ९१ । २. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), गा० ४४० । ३. वही । ४. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), जीवतत्त्वप्रबोधिनी, पृ० ५०८ । ५. अध्यात्म रहस्य, ६३ । ६. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), गा० २४४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only 2 टीका, गाथा २२४, www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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