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१९६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
३. उदय : कर्मों के फल देने की अवस्था 'उदय' कहलाती है। पूज्यपादाचार्य ने कहा है : “द्रव्यादि के निमित्तानुसार कर्मों के फल की प्राप्ति होना,
उदय है।
४. उदीरणा : कर्मोदयावस्था की तरह उदीरणावस्था में भी कर्मफल की प्राप्ति होती है। लेकिन उदया और उदीरणा में अन्तर यह है कि पहली में परिपाक को प्राप्त कर्म स्वयं फल देते हैं और दूसरी में अपाक कर्मों को संयम से पहले अनुष्ठान आदि के द्वारा पका कर फल प्राप्त किया जाता है ।२ जिन पूर्वसंचित कर्मों का अभी तक उदय नहीं हुआ है, उनको बलपूर्वक नियत समय भोगने के लिए पका कर फल देने के योग्य कर देते हैं वह उदीरणा अवस्था कहलाती है। कहा भी है : 'अपक्व कर्मों के पाचन ( पकाने ) को उदीरणा
कहते हैं'।३
५. उत्कर्षण : उत्कर्षण का अर्थ उन्नतिशील होना है। तात्पर्य यह है कि बंधन के समय कषायों की तीव्रता आदि के अनुसार कर्मों की स्थिति और अनुभाग होता है। उनकी इस स्थिति और अनुभाग को भी किसी अध्यवसायविशेष के द्वारा बढ़ाना उत्कर्षण कहलाता है। इसे "उद्वर्तना" भी कहते हैं ।
६. अपकर्षण : अपकर्षण का दूसरा नाम अपवर्तना भी है ।५ कर्मों की यह अवस्था उत्कर्षण से विपरीत है। सम्यग्दर्शनादि से पूर्व-संचित कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को क्षीण कर देना अपकर्षण कहलाता है ।
७. संक्रमण : पूर्वबद्ध कर्म की उत्तर प्रकृति को, जीव के परिमाणों के कारण, सजातीय प्रकृतियों में बदलने की अवस्था 'संक्रमण' कहलाती है । १. सर्वार्थसिद्धि, २।१, पृ० १४९; ६।१४, पृ० ३३२ । (ख) गोम्मटसार (कर्म
काण्ड), जीवतत्त्वप्रबोधिनी टीका, गाथा ४३९, ५० ५१२। २. धवला, पु० ६, खं० १ भाग ९-८, सू० ४, पृ० २१३ ।। ३. धवला, पु० ६, खं० १, भा० ९-८, सू० ४, पृ० २१३ । पञ्चसंग्रह (प्राकृत),
३३३ । गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), जीवतत्त्वप्रबोधिनी, टीका, गाथा ४३९,
पृ० ५९२ । ४. धवला पु० १०, खं० ४, सू० २१, पृ० ५२। ५. वही, पृ० ५३ : ६. स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणं । गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), जीवतत्त्वप्रबो
धिनी, टीका, गा० ४३८, पृ० ५९१ । ७. वही, गा० ४३८, पृ० ५९१ । (आयुकर्म कीप्रकृतियों में तथा दर्शन मोहनीय
का चारित्र मोहनीय में और चारित्र मोहनीय का दर्शन मोहनीय में संक्रमण नहीं होता है)।
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