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आत्मा और कर्म विपाक : १९५
उसे आत्मा का गुण मानते हैं; किन्तु जैन दार्शनिक कर्म को आत्मा का गुण न मान कर दोनों को भिन्न-भिन्न द्रव्य मानते हैं । यदि कर्म को आत्मा का गुण मान लिया जाए, तो कर्म उसके बन्धन के कारण नहीं हो सकेंगे, क्योंकि कोई गुण अपने Care को ही बंधन में नहीं डाल सकता ।" बन्धन न होने के कारण सदैव आत्मा को स्वतन्त्र अर्थात् शुद्ध, बुद्ध और मुक्त मानना पड़ेगा, और ऐसा मानना तर्कसंगत नहीं होगा। दूसरी बात यह होगी कि संसार का अभाव हो जाएगा एवं मोक्ष के लिए किये जाने वाले सभी तप आदि प्रयास व्यर्थ हो जायेंगे । अतः कर्म को आत्मा का गुण मानना ठीक नहीं है । आत्मा का गुण मान कर कर्म को बन्ध का कारण मानने से कभी आत्मा मुक्त नष्ट होने से गुणी भी नष्ट हो जाएगा । कर्म को आत्मा का दोष यह भी आयेगा कि गुण कभी गुणो से अलग नहीं हो पायेगा । इसलिए जिस प्रकार संसारी आत्मा के साथ कर्म रहेगा, उसी प्रकार मुक्तात्मा के साथ भी रहेगा, फलतः दोनों प्रकार की आत्माओं में कोई भेद नहीं रह जायेगा । अतः सिद्ध है कि कर्म आत्मा का गुण न हो कर विजातीय द्रव्य है ।
न हो सकेगी,
क्योंकि गुण के
गुण मानने से एक
कर्म की अवस्थाएँ : कर्म से युक्त संसारी जीव के की अपने आश्रव से लेकर फल देने पर्यन्त विविध निम्नांकित हैं ४
१. बन्धन : कर्म आत्मा के साथ उसी प्रकार मिल जाते हैं, जिस प्रकार सोने और चांदी को एक साथ पिघलाने पर दोनों के प्रदेश मिल कर एक रूप हो जाते हैं । कर्मप्रदेशों और आत्मप्रदेशों का मिल कर एक रूप हो जाना, यही बन्ध कहलाता है ।" यह कर्म की प्रथम तथा महत्वपूर्ण अवस्था है, क्योंकि शेष कर्म की अवस्थाएँ इसी पर निर्भर करती हैं ।
बद्ध एवं बद्धमान कर्मों दशाएँ होती हैं, जो
२. सत्ता : सत्ता कर्म की दूसरी अवस्था है । सत्ता का अर्थ अस्तित्व या सत्ता है । फल प्राप्ति से पहले की अवस्था सत्ता-अवस्था कहलाती है । कहा भी है : पूर्वसंचित कर्म का आत्मा में अवस्थित रहना 'सत्ता' है । '
१. तत्त्वार्थसार, ५।१४, २० ।
२. सर्वार्थसिद्धि, ८ २, पृ० ३७७ ।
३. तत्त्वार्थवार्तिक, ८२ १०, पृ० ५६६ ॥
४. गोम्मटसार (कर्मकांड), गा० ४३८-४० । जैन धर्म दर्शन पृ० ४८५ । ५. ( क ) तत्त्वार्थसार, ५।१९ । (ख) नयचक्र, गा० १५४ ।
६. पञ्चसंग्रह ( प्राकृत ), ३।३ ।
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