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१९४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार जाता है ।" "पंचास्तिकाय" की टीका में भी कहा है कि अनादिकाल से जीव कर्म संयुक्त होने के कारण मूर्तिक हैं। स्पर्शादि गुणों से युक्त कर्म आगामी कर्मों को स्निग्ध-रुक्ष गुणों के द्वारा बांधता है । इस प्रकार मूर्तिक कर्म के साथ बन्ध होता है । निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा अमूर्तिक है। अनादिकाल से कर्म से युक्त होने के कारण आत्मा राग-द्वेष आदि भावों के द्वारा नये कर्मों को बाँधता है । इस प्रकार पहले से बँधे कर्मों के कारण जीव नवीन कर्मों से बँध जाता है ।२
३. कुन्दकुन्द ने अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का बन्ध किस प्रकार सम्भव है, यह बतलाते हुए लिखा है कि जिस प्रकार आत्मा अमूर्त होकर घट, पट आदि मूर्त द्रव्यों और उनके गुणों को जानता है, देखता है, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म के साथ बन्ध हो जाता है । इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि जिस प्रकार कोई बालक मिट्टी के कड़े (वलय) को अपना मान कर देखता और जानता है । यद्यपि उस कड़े का उस बालक के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन कोई उस कड़े को तोड़ दे तो उसे महान् दुःख होता है। इसी प्रकार कर्म-युक्त आत्मा रागी, द्वषी और मोहो होकर सांसारिक पदार्थों को देखता और उससे ममत्व-भाव रखता है। इस प्रकार राग-द्वेष से युक्त अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का बन्ध हो जाता है।
४. चौथी बात यह है कि जिस प्रकार मूर्त मदिरा अमूर्त मति एवं श्रुतज्ञान को प्रभावित करती है, उसी प्रकार मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा को प्रभावित करते हैं ।
५. विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि जिस प्रकार मूर्तिक घट का अमूर्तिक आकाश के साथ सम्बन्ध हो जाता है उसी प्रकार मूर्तिक कर्म का अमूर्तिक आत्मा के साथ सम्बन्ध हो जाता है । दूसरा उदाहरण यह भी दिया गया है कि जिस प्रकार मूर्त अंगुलि का आकुंचनादि अभूतिक क्रिया के साथ सम्बन्ध होता है, उसी तरह मूर्त कर्म का अमूर्त जीव के साथ सम्बन्ध होता है । ६
कर्म आत्मा का गुण नहीं है : न्याय-वैशेषिक दर्शन कर्म को अदृष्ट मान कर १. सर्वार्थसिद्धि, ८२ तत्त्वार्थवार्तिक ८।२।४ । २. पञ्चास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका टीका, गा० १३४ । ३. प्रवचनसार, गा० २।८२ । ४. प्रवचनसारटीका, २।८२, पृ० २१६ । ५. पञ्चाध्यायी, उ०, २।५७-६० । विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १३३७ । ६. विशेषावश्यकभाष्य, (गणधरवाद) गा० १६३७ ।
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