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आत्मा और कर्म-विपाक : १९३
७. कर्म को मूर्त सिद्ध करने वाला एक हेतु यह भी है कि कर्म का परिणाम अमूर्त आत्मा के परिणाम से भिन्न होता है । अतः परिणाम की विभिन्नता से उक्त दोनों द्रव्यों, अर्थात् आत्मा और कर्म में विपरीतता एवं विभिन्नता सिद्ध होती है । अतः सिद्ध है कि कर्म अमूर्त आत्मा से विपरीत, अर्थात् मूर्त स्वभाव वाले हैं।' इसप्रकार अनेक अनुमानप्रमाणों से कर्म को मूर्तिक सिद्ध किया गया है।
८. आप्त वचन से भी कर्म मूर्त सिद्ध होता है। "समयसार" में कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है-"आठों प्रकार के कर्म पुद्गल-स्वरूप हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।२" पुद्गल मूर्तिक हैं इसलिए कर्म भी मूर्तिक सिद्ध होता है । अमूर्त आत्मा से मूर्त कर्मों की बन्ध-प्रक्रिया : ___कर्म का मूर्तत्व सिद्ध हो जाने के बाद यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि उनका बन्ध अमूर्त आत्मा के साथ किस प्रकार होता है ? क्योंकि, मूर्त पदार्थ का मूर्त के साथ ही बन्ध हो सकता है, अमूर्त के साथ नहीं। इस विषय पर जैन दार्शनिकों ने विभिन्न पद्धतियों से विचार किया है
१. पहली बात तो यह है कि अनेकान्तवादी जैन दर्शन में आत्मा एकान्त रूप से अमूर्त ही नहीं है । यद्यपि आत्मा निश्चय नय या शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा अमूर्त है, किन्तु व्यवहार नय या कर्मबन्ध पर्याय की अपेक्षा मूर्त है । अतः संसारी आत्मा कर्म-संयुक्त होने से कथंचित् मूर्त होने के कारण उसके साथ मूर्त कर्मों का बन्ध हो जाता है।
२. दूसरी बात यह है कि आत्मा और कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध है । पूज्यपादाचार्य ने "सकषाय..." इत्यादिसूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है जो जीव कषाय-सहित होता है, उसे कर्म का लेप होता है, कषाय-रहित जीव को नहीं। इससे जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध सिद्ध होता है और अमूर्त आत्मा और मूर्त कर्म के साथ किस प्रकार बन्धता है, इस प्रश्न का निराकरण हो
१. विशेषावश्यकभाष्य, गा० १६२७ । २. समयसार, गा० ४५ । ३. प्रवचनसार, २१८१ । ४. (क) सर्वार्थसिद्धि, २७ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, ८।१।२३-४ । तत्त्वार्थसार, ५।१७-९ ।
द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा ७, पृ० २० । धवला पु० १३, खं० ५, भाग ३, सू०१२।
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