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१९२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
पदार्थों के सम्बन्ध से फल देता है । जिस प्रकार मूर्तिक जलादि पदार्थों के सम्बन्ध से पकने वाले धान पौद्गलिक होते हैं, उसी प्रकार कार्मण शरीर भी गुड़, कांटा आदि इष्ट-अनिष्ट मूर्तिक पदार्थों के मिलने पर फल प्रदान करता है। इससे सिद्ध है कि कार्मण पौद्गलिक है । भट्टाकलंकदेव ने भी यही कहा है ।"
३. कर्म के कार्यों को देख कर भी उसका मूर्तिक होना सिद्ध होता है । जिस प्रकार परमाणुओं से निर्मित घट कार्य को देख कर उसके कारणभूत परमाणुओं को मूर्तिक माना जाता है, उसी प्रकार कर्म के कार्य औदारिकादि शरीरों को मूर्तिक देख कर सिद्ध होता है कि कर्म मूर्तिक हैं । यदि ऐसा न माना जाए तो अमूर्त पदार्थों से मूर्त पदार्थों की उत्पत्ति माननी होगी, जो असंगत है; क्योंकि अमूर्ति कारणों से मूर्त कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है । 3
४. आचार्य गुणधर ने कर्म को मूर्तिक सिद्ध किया है और कहा है कि कृत्रिम होते हुए भी कर्म मूर्तिक हैं; क्योंकि मूर्त दवा के खाने से परिणामान्तर होता है अर्थात्——रुग्णावस्था स्वस्थावस्था में परिवर्तित हो जाती है । यदि कर्म मूर्तिक न होता तो मूर्त दवा से कर्मजन्य शरीर में परिवर्तन नहीं होना चाहिए ।
५. जिनभद्रगणि ने भी कर्म को मूर्तिक सिद्ध करते हुए कहा है कि कर्म मूर्त हैं, क्योंकि आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध होने पर उसी प्रकार सुख-दुःख की अनुभूति होती है, जिस प्रकार मूर्त भोजन करने से सुखादि की अनुभूति होती है । ५
६. कर्म में मूर्तत्व की सिद्धि के लिए एक यह भी अनुमान दिया गया है कि अमूर्त पदार्थों से वेदना का अनुभव नहीं होता है, जैसे आकाश । यदि कर्म अमूर्त होते, तो उनसे भी वेदना का अनुभव नहीं होना चाहिए, लेकिन कर्म के सम्बन्ध में प्राणियों को वेदना का अनुभव होता है । अत: सिद्ध है कि कर्म मूर्तिक हैं । मूर्त अग्नि के साथ सम्बन्ध होने से जिसप्रकार वेदना की अनुभूति होती है, उसी प्रकार कर्म के सम्बन्ध से वेदना का अनुभव होता है, जो उसे मूर्त सिद्ध करता है ।
१. तत्त्वार्थवार्तिक, ५।१९।१९ ।
२. विशेषावश्यक भाष्य, गणधरवाद, गा० १६२५ ।
३. औदारिकादिकार्याणां कारणं कर्म मूर्तिमत् ।
मूर्तेन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते । तत्त्वार्थसार, ५।१५ ।
न
५७ ।
४. कसा पाहुड, १1१।१, पृ० ५. विशेषावश्यकभाष्य, गा० १६२६ ।
६. वही ।
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