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आत्मा और कर्म-विपाक : १९१
५. बाल-शरीर अवश्य ही किसी कारण से हुआ है । जिस प्रकार युवाशरीर बाल शरीर के बाद होता है, उसी तरह बाल-शरीर भी किसी अन्य शरीर पूर्वक होना चाहिए। अतः बाल-शरीर जिस शरीरान्तर पूर्वक होता है, वह कार्मण शरीर है और कार्मण शरीर ही कर्म कहलाता है। इस प्रकार शरीर के निर्माण के कारण-रूप में कर्म की सत्ता सिद्ध है।' न्यायदर्शन में भी धर्माधर्म से प्रेरित पंचभूतों से शरीर की उत्पत्ति बतलाई गयी है ।
६. कर्म-अस्तित्व की सिद्धि के सन्दर्भ में एक अनुमान यह भी है कि दानादि क्रियाओं का फल अवश्य ही होना चाहिए क्योंकि चैतन्यस्वरूप व्यक्ति की क्रियाएं हैं । जिस प्रकार सचेतन किसान की कृषि-क्रिया निष्फल नहीं होती, उसी प्रकार दानादि क्रियाएं भी निष्फल नहीं होनी चाहिए । अतः दानादि क्रियाओं के फल के रूप में कर्म की सत्ता सिद्ध होती है ।
यदि कर्म का अस्तित्व न माना जाय तो दानादि क्रियाएँ, तपस्यादि अनुष्ठान, बन्ध, मोक्ष तथा संसार की विविधता आदि को निर्हेतुक मानना होगा, जो असम्भव एवं तर्कहीन होगा। उपर्युक्त सांसारिक विविधता आदि सहेतुक हैं और उनका कारण कर्म है, इसलिए सिद्ध है कि कर्म का अस्तित्व है। कर्म की मूर्त-सिद्धि :
जैन दर्शन में कर्म को भौतिक-पौद्गलिक या मूर्तिक बतलाया गया है, क्योंकि कर्म में स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने कर्म को मूर्तिक कहते हुए कहा है कि कर्म के फलस्वरूप जीव स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयों को भोगता है एवं सुख-दुःख का अनुभव करता है, इसलिए सिद्ध है कि कर्म मूर्तिक है ।' विद्यानन्द ने भी कुन्दकुन्द की इस मान्यता का अनुकरण 'आप्तपरीक्षा' में किया है ।
२. आचार्य पूज्यपाद ने समस्त शरीरों को पौद्गलिक तथा मूर्तिक सिद्ध करते हुए कहा है कि कार्मण शरीर भी पौद्गलिक है; क्योंकि वह मूर्तिमान्
१. विशेषावश्यकभाष्य, गणधरवाद, गा० १६१४ । २. न्यायसूत्र, ३।२।६३ । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गणधरवाद, गा० १६१५-११ । ४. धवला, पु० १३, खं० ५, भा० सूत्र २४, पृ० ४८-५० । ५. पञ्चास्तिकाय, गा० १३३ । ६. आप्तपरीक्षा, श्लोक ११५, पृ० २५६ । ७. सर्वार्थसिद्धि, ५।१९, पृ० २८५ ।
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