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________________ १९० : जैनदर्शन में आत्म-विचार सम्भव नहीं हैं" ।' मज्झिमनिकाय में भी उपर्युक्त विषमता का कारण कर्म बतलाया गया है । २. कर्म के अस्तित्व में दूसरा प्रमाण ज्ञान का होनाधिक होना है । समस्त जीवों का ज्ञान एक-सा सदैव नहीं बना रहता है । अतः इसका अवश्य कोई कारण होना चाहिए, और जो भी ज्ञान के हीनाधिक भाव का कारण है, वह कर्म ही है | अतः सिद्ध है कि कर्म की सत्ता है । २ ३. जीव के कार्यरूप विभिन्न पर्यायों का कोई कारण अवश्य है । यदि उनका कारण न माना जाए तो समस्त कार्यों को भी अकारण मानना होगा, जो असंगत है | अतः कर्म जीव की विभिन्न पर्यायों का उसी प्रकार कारण है, जिस प्रकार दीपक ज्योति का कारण है । कहा भी है- "जिस प्रकार ज्योति तेल के स्वभाव को अपने स्वभाव से नष्ट करके प्रदीप्त होने का कार्य करती है, उसी प्रकार कर्म जीव के स्वभाव का घात करके उसके मनुष्य आदि पर्याय रूप कार्यों का जनक होता है । ३ भट्टाकलंकदेव ने भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा है कि"मनुष्य, शेर, भेड़िया, चीता, सांप आदि में शूरता क्रूरता आदि धर्म परोपदेश पूर्वक न हो कर नैसर्गिक होते हैं । ये आकस्मिक भी नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं । १४ इस प्रकार आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के कारण के रूप में कर्म का अस्तित्व सिद्ध है । ४. विशेषावश्यकभाष्य में कर्मास्तित्व सिद्ध करते हुए कहा गया है कि जीव के सुख-दुःख अंकुर की तरह कार्य रूप होने से उनके कारण के रूप में कर्म की सत्ता सिद्ध हो जाती है । " चंदनादि विषयों को सुख का कारण और विष- कंटकादि को दुःख का कारण मानना ठीक नहीं है, क्योंकि वे सभी के लिए समान रूप से सुखदुःख नहीं पहुँचाते हैं । दूसरी बात यह है कि कंटकादि किसी के लिए दुःखकारक हैं तो किसी के लिए सुखकारक भी हैं । अतः सुख-दुःख के कारण के रूप में कर्म को सत्ता सिद्ध होती है । १. गोम्मटसार ( जीवकांड), जीवतत्त्वप्रदीपिका । २. एदस्स पमाणस्स वड्ढिहाणि - तर तमभावो ण ताव णिक्कारणो; । । जं तं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिति तम्हा सकारणाहि सिद्धं । कसायपाहुड, १।१।१, प्रकरण ३७-८, पृ० ५६ । ३. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, गा० ११७ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, १।३।६, पृ० ३३ | ५. विशेषावश्यक भाष्य, गणधरवाद, गा० १६१०-२ । ६. वही, गा० १६१२-३ । Jain Education International ---- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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