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आत्मा और कर्म-विपाक : १८९ कर्म को मूल विशेषताएँ : १. कर्म सूक्ष्म, बलवान्, चिकने, भारी, वज्र के समान कठोर, प्रचुर एवं अविनाशी होते हैं।'
२. कर्म आत्मा को परतन्त्र करके तीनों लोकों में भ्रमण कराता है ।२
३. कर्मशक्ति अचिन्त्य, आत्मशक्ति को बाधक और मोक्षहेतु का तिरोधान करने वाली होती है ।
४. कर्म अपनी शक्ति से केवलज्ञान स्वभाव को नष्टकर देते हैं, लेकिन जीव को नष्ट नहीं कर सकते हैं।५
५. जीव और कर्म का संयोग स्फटिक और तमाल-पत्र के संयोग की तरह है। ... ६. कर्मों की विचित्रता से ही जीव के प्रदेशों का संघटन, विच्छेद, बन्धन एवं विस्तार-संकोच होता है।
७. सुख-दुःख की उत्पत्ति बलिष्ठ कर्मों के कारण ही सम्भव है।
८. पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्म जीव के बन्धन के लिए सोने और लोहे की जंजीर की तरह हैं । .
कर्म-अस्तित्व-साधक तर्क १. संसार की विचित्रता कर्म के अस्तित्व का साधक है : संसार में अनेक प्रकार की विचित्रताएँ दृष्टिगत होती हैं। कोई दरिद्र है, कोई धनी है, किसी को अथक पुरुषार्थ करने पर भी सफलता नहीं मिलती है और किसी को थोड़ा प्रयत्न करने पर ही अभीष्ट की उपलब्धि हो जाती है । यहाँ तक कि सांसारिक जीवों को अनिच्छापूर्वक भी महान् कष्टों को भोगना पड़ता है। इस प्रकार, सांसारिक विषमताएँ, सुख-दुःख, इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग आदि कार्य सिद्ध करते हैं कि इनका कोई-न-कोई अदृश्य कारण अवश्य है । अतः उक्त कार्यों का जो भी कारण है, वही कर्म कहलाता है ।' गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) की टीका में कहा भी है : "कर्म के बिना दरिद्र, लक्ष्मीवान् आदि विचित्रतायें
१. परमात्मप्रकाश, गा० ११७८ । २. वही, गा० १६६; तत्त्वार्थवार्तिक, ५।२४।९, पृ० ४८८ । ३. पञ्चाध्यायी, उत्तरार्ध १०५, ३२८, ६८७ एवं ९२५ । ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० २११ । ५. धवला, पु० १२, खं० ४, भाग २, सू० ६, पृ० २९७ । ६. समयसार, गा० १४६ । ७. भारतीय दर्शन की रूपरेखा : प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, पृ० १३ । ८. पञ्चाध्यायी, उ० का०, ५० ।
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