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________________ १८८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार ने भी आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को अनादि सिद्ध करते हुए बतलाया है कि अग्नि की स्वाभाविक उष्णता की तरह आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि होना स्वतःसिद्ध है। अतएव इनका सम्बन्ध किसने और कब किया, इस प्रकार के प्रश्न ही निरर्थक हैं।' (ख) आत्मा और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है: . जैनदर्शन में अभिमत छह द्रव्यों में कोई भी द्रव्य किसी द्रव्य का कर्ता नहीं है, सभी द्रव्य अपने स्वाभाविक रूप से परिणत होते हैं । यहाँ प्रश्न होता है कि यदि जीव-द्रव्य पुद्गल-कर्म को नहीं करता है, तो कर्म क्यों आत्मा को फल देता है और आत्मा क्यों उसके फलों का उपभोग करती है ? इस समस्या का समाधान यह है कि आत्मा और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। कहा भी है-'जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्म-रूप से परिणत होते हैं और कर्म जीव-गुणों का उद्भावक नहीं है, किन्तु दोनों में परस्पर निमित्त होने से परिणमन होता है । पंचाध्यायीकार ने भी जीव और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक भाव सिद्ध करते हुए कहा है कि जीव के अशुद्ध रागादि भावों के कारण ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म हैं और उन द्रव्य कर्मों के कारण रागादिभाव हैं। अतः कुम्भ और कुम्भकार की तरह जीव और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध सिद्ध होता है । इस प्रकार सिद्ध है कि आत्मा और कर्म में अनादि रूप से निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । इन दोनों में जो कमजोर होता है, उसे बलवान् अपने अनुकूल कर लेता है। जीव और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने से इतरेतराश्रय नामक दोष भी नहीं आता है; क्योंकि परस्पर में एक-दसरे पर आश्रित होना इतरेतराश्रय दोष कहलाता है । आत्मा और कर्म एक दूसरे पर आश्रित नहीं हैं । आत्मा के साथ कर्म अनादि काल से सम्बद्ध है। अतः उसी पूर्वबद्ध कर्म के कारण नवीन कर्म आते हैं। १. पञ्चाध्यायी, २०५३-५४ । २. समयसार, गा० १०३ । प्रवचनसार, २।९२ । ३. समयसार, आत्मख्याति टीका, ३१२-३१३ । ४. समयसार, गा० ८०-८१४९११११९ । पञ्चास्तिकाय, गा० ६१-६५ । प्रवचनसार, गाथा २१७७ । मूलाचार, गाथा ९६७ । ५. पं० ध० : पञ्चाध्यायी, गा० २।४१।१०६।१०९६-७१ । ६. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, गा० २९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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