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________________ आत्मा और कर्म-विपाक : १८७ ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "जिस प्रकार किसी बर्तन में अनेक प्रकार के रस वाले अनेक प्रकार के बीज, फल, फूल आदि मदिरा-रूप में परिणत हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों के योग और कषाय के कारण कर्म-रूप परिणमन होता है । यही 'बंध कहलाता है'। कर्म आत्मा के स्वभाव का घात करते हैं : कर्म आत्मा से बंध कर आत्मा की स्वाभाविक शक्ति पर आवरण डाल कर, जीव को उसी प्रकार उन्मत्त कर देते हैं, जिस प्रकार जीव मद्य से मदोन्मत्त हो जाता है। कहा भी है-"ज्ञानदर्शन-चारित्र-स्वरूप आत्मा को मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय-रूप कर्म-मल उसी प्रकार से मलिन कर देते हैं, जिस प्रकार मैल सफेद वस्त्र को मलिन कर देता है"।२ आत्मा और कर्म का सम्बन्ध : आत्मा और कर्म दोनों द्रव्य विजातीय हैं, फिर भी इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई भी संसारी आत्मा कर्मरहित नहीं होती । पहले भी कहा जा चुका है कि आत्मा और कर्म का अनादिकाल से सम्बन्ध है। तत्त्वार्थसूत्र के "सकषाय-" सूत्र में आये हुए 'कर्मणोयोग्यान्' विशेषण से भी आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि सिद्ध होता है । इस विशेषण की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि पूर्वजन्म के कर्म के कारण जीव कषाययुक्त होता है और कषायों के कारण कर्म आते हैं। कषाय-रहित जीवों के बन्ध नहीं होता है । अतः सिद्ध है कि जोव और कर्म का बीज और वृक्ष की तरह अनादिकालीन कार्य-कारण सम्बन्ध है। कर्म से कषाय और कषाय से कर्म, यह परम्परा बीज और वृक्ष की तरह अनादि काल से प्रवाहित हो रही है और तब तक होती रहेगी, जब तक संसार में जीवों का अस्तित्व है ।३ अन्य आचार्यों ने भी पूज्यपाद की तरह कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि माना है। पुराने कर्म प्रतिक्षण फल दे कर आत्मा से अलग होते रहते हैं । आत्मा के रागादि परिणामों के कारण नवीन कर्म आत्मा के प्रदेशों से बन्ध करते रहते हैं। कहा भी है-“जिस प्रकार भण्डार से पुराने चावल निकाल लिये जाते हैं और नये भर दिये जाते हैं, उसी प्रकार अनादि कार्मण शरीर-भण्डार में कर्मों का आना-जाना होता रहता है।" पंचाध्यायीकार १. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।२।९। और भी देखें-धवला, १३।५।५ सूत्र ८२, पृ० ३४७ । २. समयसार, गा० १६०-१६३ । ३. सर्वार्थसिद्धि, ८।२।, पृ० ३७७ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, ८।२।१२। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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