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१८६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
है । कहा भी है - संसारी जीव के राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं और रागादि परिणामों से नवीन कर्मों का बन्ध होता है और इन नवीन कर्मों के कारण उसे नरकादि चार गतियों में भ्रमण करना पड़ता है । इन गतियों में जीव के जन्म ग्रहण करने पर उससे शरीर, शरीर से इन्द्रियाँ और इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण और विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष परिणाम होते हैं द्वेष से कर्मों का बन्ध होता है । इस प्रकार राग-द्वेष ही कारण हैं, इनसे कर्मों का प्रवाह बना रहता है । 'ममकार' और 'अहंकार' ही राग-द्वेष हैं | आचार्य रामसेन ने राग-द्वेष को मिथ्यादर्शनमोहनीय कर्मरूप राजा का सेनापति बतलाया है, क्योंकि इन्हीं से कषाय और नो-कषाय उत्पन्न होती हैं ।
और पुनः उन राग
कर्मबन्ध के प्रमुख
कषाय गोंद या पानी की तरह और योग- वायु की तरह है । जिस प्रकार वायु द्वारा लाई गयी धूल गीली या गोंद-युक्त दीवार पर चिपक जाती है किन्तु साफ स्वच्छ और सूखी दीवार पर नहीं चिपकती ( बल्कि स्वतः झड़ कर गिर जाती है), उसी प्रकार योग-रूप वायु के द्वारा लाई गयी कर्म-रूप रज कषायरूप गोंद से युक्त आत्मप्रदेश - रूप दीवार पर चिपक जाती है । यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि सभी जीवों में न तो कर्मों की मात्रा बराबर होती है और न उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति समान होती है । जैन चिन्तकों ने इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि कर्म परमाणुओं का में आना, योग- वायु के वेग पर आधारित है और उनका कम या अधिक समय तक बना रहना तथा उनके द्वारा आत्म- गुणों का घात होना, कषाय-रूप गोंद के गाढ़े-पतलेपन अथवा उसकी कम या अधिक मात्रा पर निर्भर करता है ।" कुन्दकुन्दाचार्य ने भी 'समयसार' में राग-द्वेष-रूप कषाय को तेल की तरह चिकना मानकर उदाहरण द्वारा सिद्ध किया है कि रागादि-रूप स्निग्धता ही कर्म-रूप रज के आत्म- प्रदेशों में चिपकने का प्रमुख कारण है । भट्टाकलंकदेव
कम या अधिक मात्रा
१. प्रवचनसार, २।८८ एवं ९५ । समयसार, गाथा ११९, १६७ ।
२. पंचास्तिकाय, गा० १२८-३० । भगवतीसूत्र, ९ ।
३. तत्त्वानुशासन, श्लोक १२-१३ ।
४. वही, १७-१९ । अध्यात्मरहस्य, २७ ॥
५. ( क ) तीव्रमन्दज्ञातऽज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक : भट्टाकलंकदेव : ६ २१५ ।
६. समयसार, गा० २३७-४६ ।
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— तत्त्वार्थ सूत्र, ६।६।
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