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________________ आत्मा और कर्म-विपाक : १८५ 'आस्रव' कहलाता है ।' कहा भी है, "जिससे कर्म आते हैं, वह आस्रव कहलाता है । पुण्य-पाप रूप कर्मों के आगमन द्वारा आस्रव कहलाता है। जैसे; नालियों द्वारा लाये गये जल से तालाब भर जाता है, उसी प्रकार मिथ्या दर्शनादि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते हैं" ।२ आस्रव जीव के शुभ-अशुभ कर्मों के आने का द्वार है। आस्रव के कारण परमाणु आकर आत्म-प्रदेशों में दूध और पानी की तरह मिल जाता है, तब वे कार्मणपुद्गल-परमाणु कर्म कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में जब तक पुद्गल-परमाणु राग-द्वोष से युक्त आत्मा से सम्बन्धित नहीं हो जाते हैं, तब तक वे कार्मण पुद्गलपरमाणु नहीं कहलाते हैं । दार्शनिक भाषा में कहा जा सकता है कि परस्पर एक क्षेत्रावगाही हो कर आत्मा और पुद्गल परमाणुओं का घनिष्ठ सम्बन्ध को प्राप्त होना ही कर्म है । धवलाकार ने कहा भी है कि 'संसार में रागद्वेष-रूपी उष्णता से संयुक्त वह आत्मा-रूप दीपक योग-रूप बत्ती के द्वारा कार्मणवर्गणा-स्कन्धरूप-तेल ग्रहण करके कर्म-रूप काजल में परिणत होता है। कर्म और आत्मा के इस प्रकार के सम्बन्ध को जैन दार्शनिक शब्दावली में 'बन्ध' कहा गया है। क्योंकि कर्म आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करके इस प्रकार परतन्त्र कर देते हैं कि आत्मा विभाव रूप से परिणमन करने लगती है।" भट्टाकलंकदेव ने भी कहा है कि “इष्ट देश को गमन न कर सके, इस प्रकार खूटी में रस्सी आदि से बाँध देना 'बन्ध' कहलाता है।" अमृतचन्द्रसूरि ने 'पंचास्तिकाय' की टीका में कहा है-“निश्चय नय की अपेक्षा से अमूर्त जीव अनादि काल से मूर्त कर्म के कारण रागादि परिणामों से स्निग्ध होता हुआ मूर्त कर्मों का विशेष रूप से अवगाहन करता है और उस परिणाम को पाकर मूर्त कर्म भी जीव का विशिष्ट रूप से अवगाहन करते हैं ।"७ बन्ध के विश्लेषण में बतलाया गया है कि राग, द्वेष और मोह के कारण कर्म-रूपी रज आत्म-प्रदेशों में चिपक जाती १. तत्त्वार्थसूत्र, ६।२। २. तत्त्वार्थवार्तिक, ११४।९, ६।२।४-५ । सर्वार्थसिद्धि, ६।२। ३. पञ्चास्तिकाय, गाथा ६५-६६ । ४. तत्त्वानुशासन, ६। सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । -तत्त्वार्थसूत्र, ८।२।। ५. धवला, पु० १५, सू० ३४ । तत्त्वार्थवार्तिक, १।४।१७, पृ० २६ । भगवती .. आराधना विजयोदया टीका, गा० ३८, पृ० १३४ । सर्वार्थसिद्धि, ७।२५ । ६. तत्त्वार्थवार्तिक, ७।२५।१ । ७. पंचास्तिकाय, गाथा १३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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