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________________ १८४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार में जीव मिथ्यादर्शनादि परिणामों के द्वारा जिन्हें उपार्जित करता है, वे कर्म कहलाते हैं ।" अकलंकदेव 'तत्त्वार्थवार्तिक' में कर्म की परिभाषा देते हुए लिखते हैं- " निश्चयनय की दृष्टि से वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा आत्मपरिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गल परिणाम एवं व्यवहार-नय की दृष्टि से आत्मा के द्वारा पुद्गल - परिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्मपरिणाम करना कर्म है" । इसी प्रकार कर्म की और भी अनेक परिभाषाएँ की गयी हैं, जिनका भाव उपर्युक्त ही है । जैन दर्शन के सिद्धान्तानुसार यद्यपि आत्मा और कर्म का अपना-अपना स्वतन्त्र स्वरूप एवं अस्तित्व है, तथापि आत्मा और कर्म का परस्पर में सम्बन्ध है । इनका यह सम्बन्ध धन और धनी जैसा तात्कालिक नहीं है, बल्कि सोना और किकालिमा की तरह अनादिकालीन है । दूसरी बात यह है कि इस समस्त संसार में डिबिया में भरे हुए काजल की तरह सूक्ष्म और बादर कर्म पुद्गल - परमाणु से भरे हुए हैं, ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ कर्म पुद्गल-परमाणु न हों । लेकिन ये समस्त कर्म पुद्गल - परमाणु कर्म नहीं कहलाते हैं । इनकी विशेषता यही है कि इनमें "कर्म" बनने की योग्यता है । अनादिकालीन कर्म-मलों से युक्त जीव जब रागादि कषायों से संतप्त होकर कोई मानसिक, वाचिक या कायिक क्रिया करता है तब कार्मणवर्गणा के पुद्गल - परमाणु आत्मा की ओर उसी प्रकार आकृष्ट होते हैं, जिस प्रकार लोहा चुम्बक की ओर आकषित होता है या जिस प्रकार अग्नि से संतप्त लोहे का गोला पानी में डालने पर चारों ओर से पानी खींचता है । उपर्युक्त क्रियाओं के करने से आत्मप्रदेशों में उसी प्रकार विक्षोभ या कम्पन होता है, जिस प्रकार तूफान के कारण समुद्र के पानी में चंचल तरंगें उत्पन्न होती हैं । आगमिक शब्दावली में इस प्रकार आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्द होने को योग कहते हैं । 'योग' के कारण ही कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं का आत्मा की ओर आना आगम की परिभाषा में १. आप्तपरीक्षा, ११३ । भगवती आराधना, विजयोदया टीका, पृ० ७१ । २. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।१।७ । ३. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ), गा० २ | ४. पञ्चास्तिकाय, गा० ६४ । ५. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।२।५१ ॥ ६. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१ । २।२६, ६।१ । Jain Education International पञ्चाध्यायी, २०४५,१०९-१०० । For Private & Personal Use Only सर्वार्थसिद्धि, www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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