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आत्मा और कर्म-विपाक : १८३
अनुष्ठान 'अपूर्व' नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है। यही 'अपूर्व यज्ञादि अनुष्ठानों का फल देता है । यहाँ स्पष्ट है कि 'अपूर्व' वह शक्ति है जो वेद द्वारा प्ररूपित कर्म से उत्पन्न होती है।'
शंकराचार्य ने शंकर-भाष्य में विश्व-वचित्र्य का कारण अनादि, अविद्या या माया को माना है ।२ मायाजन्य ईश्वर कर्म के अनुसार जीवों को फल प्रदान करता है ।
बौद्ध दर्शनानुसार राग, द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है। विसूद्धिमग्ग में कर्म को अरूपी कहा गया है। रागादि से मन, वचन और काय की प्रवृत्ति होती है। मानसिक क्रियाजन्य संस्कार रूप, कर्म, वासना और वचन एवं कायजन्य संस्कार-कर्म अविज्ञप्ति कहलाता है।५ सौत्रान्तिक कर्म का समावेश अरूप मानते हैं, वे अविज्ञप्ति को नहीं मानते हैं । विज्ञानवादी बौद्ध दार्शनिक 'कर्म' के लिए वासना शब्द का प्रयोग करते हैं । शून्यवादी अनादिअविद्या शब्द द्वारा वासना की व्याख्या करते हैं । जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप : ___ भारतीय दर्शन में विभिन्न दार्शनिकों ने जिसे संस्कार, वासना, अदृष्ट, क्लेश और अविद्या कहा है, जैन दार्शनिकों ने उसके लिए कर्म का प्रयोग किया है। इस दर्शन में कर्म की वास्तविक सत्ता मानी गयी है। जैनागमों में मान्य तेईस वर्गणाओं में एक कार्मणवर्गणा ( अर्थात्-कर्म बनने योग्य पुद्गलपरमाणु ) भी है। यही पुद्गल-परमाणु राग-द्वेष से आकृष्ट होकर आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करके उसकी स्वतन्त्रता को रोक देते हैं, इसलिए ये पुद्गल-परमाणु कर्म कहलाते हैं । कहा भी है "जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है, वह कर्म कहलाता है। दूसरे शब्दों
१. शाबर भाष्य, २।१।५ । २. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, २।१।१४। ३. वही, ३।२।३८-४१ । ४. विशेषावश्यक भाष्य, १७।११० । ५. प्रमाणवार्तिक अलंकार, पृ० ७५ । ६. जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ० ४२४ । ७. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड )। ( समान गुणयुक्त सूक्ष्म अविच्छेद अविभागी
समूह को वर्गणा कहते हैं) । विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य-षट्खण्डागम, पु० १४, ख० ५, आ० ६, सूत्र ७६-९७ एवं ७०८-१७ ।
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