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१८२ : जैनदर्शन में आत्म- विचार
लिए धर्माधर्म, संस्कार और अदृष्ट शब्दों का प्रयोग किया है ।' सांख्य योगदर्शन में कर्म के समानान्तर क्लेश, आशय तथा वासना शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है । मीमांसा दर्शन में कर्म के स्थान पर 'अपूर्व' शब्द का प्रयोग उपलब्ध है । वेदान्त दर्शन में माया और अविद्या का प्रयोग कर्म के स्थान पर किया गया है । बौद्ध दर्शन में कर्म के लिए वासना और अविद्या शब्दों का प्रयोग विशेष रूप से मिलता है । "
न्यायभाष्य में वात्स्यायन ने कहा है कि राग, द्वेष और मोह से प्रेरित होकर जीव में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं । इन प्रवृत्तियों से धर्म-अधर्म की उत्पत्ति होती है, इन्हीं धर्म-अधर्म को संस्कार कहते हैं । ६ वैशेषिक दर्शन में आचार्य प्रशस्तपाद ने चौबीस गुणों के अन्तर्गत माने गये अदृष्ट गुण को संस्कार से पृथक मान कर दो भागों में विभाजित किया है- धर्म और अधर्म । इस प्रकार जिस धर्म-अधर्म का समावेश न्याय दार्शनिकों ने संस्कार में किया, उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिक दार्शनिकों ने अदृष्ट के अन्तर्गत रखा | इस प्रकार इन दार्शनिकों ने प्रतिपादित किया कि रागादि दोषों से संस्कार, संस्कार से जन्म और जन्म से राग-द्वेष और मोह आदि दोष और इन दोषों से संस्कार उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार जीवों की संसार परम्परा बीजांकुर की तरह अनादि है ।
सांख्य योग दर्शन में कहा गया है कि अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों से क्लिष्ट वृत्ति की उत्पत्ति होती है । इस क्लिष्ट वृत्ति से धर्म-अधर्म रूपी संस्कार की उत्पत्ति होती है । यही संस्कार आशय, वासना, कर्म और अपूर्व कहलाता है ।
मीमांसा दर्शन का मत है कि जीवों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि
१. न्यायभाष्य १।१।२ ।
प्रशस्तपादभाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित, पृ० ४७ ।
२. योगदर्शन भाष्य ११५ ।
३. तत्त्वार्थवार्तिक, २।१५; शास्त्रदीपिका, पृ० ८०; मीमांसासूत्र ( शाबर भाष्य ),
२।१।५ ।
४. शांकर भाष्य, २।१।१४ ।
५. विसुद्धिमग्ग, १७।११० । अभिधर्मकोष, १।९ ।
६. न्यायभाष्य, १।१।२ ।
७. योगदर्शन भाष्य, ११५ ।
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