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आत्मा और कर्म विपाक : १८१
करना कर्म कहलाता है । उदाहरणार्थ — पढ़ना, सोना आदि क्रियाएँ कर्म हैं । भट्टाकलंक देव ने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में कर्म का अर्थ 'कर्मकारक, पुण्य-पाप तथा क्रिया' किया है ।
वैदिक काल में कर्म का अर्थ यज्ञानुष्ठान है । वैदिक युग के महर्षियों ने जीवों की विचित्रता का कारण तत्त्व, ऋत एवं प्रजापति को माना है । ब्राह्मण काल में भी कर्म का अर्थ यज्ञानुष्ठान ही माना गया है । स्मार्त विद्वानों ने कर्म का अर्थ चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्तव्यों का पालन करना बतलाया है । पौराणिकों के मतानुसार कर्म का तात्पर्य व्रत - नियमादि धार्मिक क्रियाओं से है । वैयाकरणों ने कर्मकारक के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग किया है । 4 न्याय दर्शन में कर्म का अर्थ चलनात्मक क्रिया किया गया है । वहाँ उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन --- -कर्म के पांच भेद बतलाये गये हैं ।' योग दर्शन में कर्म का अर्थ संस्कार, वासना तथा अपूर्व किया गया है । बौद्ध दर्शन में कर्म का तात्पर्य वासना और जैन दर्शन में कर्म का अर्थ परिणमन एवं परिस्पन्दात्मक क्रिया है । जैन दर्शन में विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत और ईश्वर शब्द भी कर्म के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विभिन्न विचारधाराओं में कर्म के अर्थ के विषय में विभिन्नता है अर्थात् विभिन्न मतों में कर्म शब्द के विभिन्न अर्थ किये गये हैं ।
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विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं में कर्म :
भारतीय दर्शन के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि जैन दर्शन में जिस अर्थ में 'कर्म' शब्द व्यवहृत हुआ है, उसके लिए अन्य विभिन्न भारतीय दार्शनिकों ने माया, अविद्या, अपूर्व, वासना, आशय, अदृष्ट, संस्कार, भाग्य, देव, दैव धर्माधर्म आदि शब्दों का प्रयोग किया है । न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों ने कर्म के
१. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।१।३ ।
२. भारतीय दर्शन, पृ० १२ ।
३. वही, पृ० ९ ।
४. जैनधर्मदर्शन, पृ० ४४२ ।
५. कर्तुरीप्सिततमं कर्म,
पाणिनिमुनिप्रणीत अष्टाध्यायी, १।४।४९ ।
६. एक द्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षं कारणमिति कर्मलक्षणम् ।—
सूत्र, १।१।१७ ।
७. आदिपुराण ( महापुराण), ४१३७ ।
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- वैशेषिक
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