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आत्मा और कर्म-विपाक : १७९ है-ऐसा मानना आत्मवाद कहलाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा ही सब कुछ करता है।
पौरुषवाद : पुरुषार्थवाद के अनुसार समस्त कार्यों की सिद्धि पुरुषार्थ से होती है । आलस्य करने से तथा निरुद्यमी होने से किसी फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है ।२ पुरुषार्थवाद भाग्य या दैव को नहीं मानता है । यह सिद्धान्त इच्छास्वातन्त्र्य में विश्वास रखता है।
देववाद : दैववाद को भाग्यवाद भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार पुरुषार्थ करना व्यर्थ है । किसी कार्य की सफलता-असफलता का मूल आधार भाग्य होता है । गोम्मटसार में कहा गया है "मैं केवल भाग्य को श्रेष्ठ मानता हूँ, निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार है। शाल के वृक्ष के समान उत्तम कर्ण का युद्ध में मारा जाना यह देव का ही प्रभाव है। अतः समस्त इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं की उपलब्धि भाग्य से ही होती है"। दैववाद में इच्छास्वातन्त्र्य का कोई स्थान नहीं है । भाग्य के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। प्राणी अपने पुरुषार्थ से कर्म-फलों की प्राप्ति में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है। देववाद और नियतिवाद में अन्तर यह है कि दैववाद कर्म की सत्ता में विश्वास करता है किन्तु नियतिवाद कर्म-अस्तित्व को नहीं मानता है। दैववाद की पराधीनता प्राणी के कर्मों के कारण है और इसके विपरीत नियतिवाद की पराधीनता अकारण अर्थात् स्वतः है।५ यद्यपि यह कर्मफल को इतना नियत बना देता है कि उसमें परिवर्तन की कोई सम्भावना ही नहीं रह जाती है। जैन-दार्शनिकों का मन्तव्य :
जैन-दार्शनिक उपर्युक्त एकान्तिक सिद्धान्तों से सहमत नहीं है। उनके अनुसार यद्यपि प्राणियों के सुख-दुःख का प्रमुख कारण कर्म है किन्तु इसके साथ ही कालादि भी गौण कारण माने गये हैं। शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र ने इन एकान्त मतों की समीक्षा करते हुए कहा है कि तार्किक जनों को यह मानना
१. एक्को चेवमहप्पा पुरिसो देवो य सव्व वावी य । सव्वंगणिगूढोवि य सचेयणो णिग्गुणो परमो ।।
गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), ८८१ । २.३. आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचि ण भुंजदे ।
थणक्खीरादिपाणं वा पउरुसेण विणाण हि ।।-वही, ८९०। ४. वही, ८९१ । ५. जैन धर्म दर्शन, पृ० ४२० ।
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