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१७८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार कुछ भी नहीं होता है । न बल है, न वीर्य है, न शक्ति है और न पराक्रम ही है । सभी सत्व, प्राणी और जीव अवश, दुर्बल तथा वीर्यविहीन हैं । नियति, जाति, वैशिष्ट्य स्वभाव के कारण ही उनमें परिवर्तन होता है...।' इस प्रकार नियतिवाद के अनुसार समस्त वस्तुएँ नियति रूप वाली हैं । अतः नियति को ही उनका कारण मानना चाहिए।
यदृच्छावाद : 'यदच्छा' का अर्थ अकस्मात तथा अनिमित्त होता है। अतः यदृच्छावाद को अकस्मात्, अनिमित्तवाद, अकारणवाद, अहेतुवाद भी कहते हैं ।" यदृच्छावाद के अनुसार किसी कार्य का कोई कारण नहीं है । निमित्त के बिना ही कार्य होता है ।
पुरुषवाद : पुरुष विशेष को समस्त घटनाओं का कारण मानना पुरुषवाद कहलाता है। अभिधान राजेन्द्रकोष में कहा भी है "एक पुरुष ही समस्त लोक की स्थिति, सर्ग और प्रलय का कारण है । प्रलय में भी उसकी अतिशय ज्ञानशक्ति अलुप्त रहती है । जिस प्रकार मकड़ी अपने जाल का, चन्द्रकान्त मणि जल का और वटबीज प्ररोह का कारण है, उसी प्रकार वह पुरुष सम्पूर्ण प्राणियों का कारण है । जो हो चुका है, जो है तथा जो होगा, उस सब का कारण पुरुष ही है-इस प्रकार की मान्यता पुरुषवाद कहलाती है ।
ईश्वरवाद : ईश्वरवाद के अनुसार ईश्वर ही समस्त घटनाओं का कारण है। गोम्मटसार में ईश्वरवाद के विवेचन में कहा गया है कि आत्मा अनाथ है, उसका सुख-दुःख तथा स्वर्ग-नरक गमन आदि सब ईश्वर के अधीन है ।
आत्मवाद : संसार में एक ही महान् आत्मा है, वही पुरुष या दैव है । वह सबमें व्यापक है, सर्वाङ्ग रूप से छिपा है, सचेतन, निर्गुण और उत्कृष्ट
१. दीघनिकाय, सामंजफलसुत्त । २. नियतेनैव रूपेण सर्वे भावा भवन्ति यत् । ततो नियतिजा ह्यते तत्स्वरूपानुवेधतः ॥
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०६१ ३. न्यायभाष्य (वात्स्यायन), ३।२१३१ । ४. न्यायसूत्र, ४।१।२२। ५. जैन धर्म दर्शन, पृ० ४२१ । ६. अभिधानराजेन्द्र कोष, भाग ५, पृ० १०३८ । ७. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), ८८० ।
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