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अध्याय ३
(1) आत्मा और कर्म - विपाक
(क) कर्म सिद्धान्त का उद्भव :
कर्म सिद्धान्त भारतीय चिन्तकों की, विशेष रूप से जैन चिन्तकों की विश्वदर्शन को एक अभूतपूर्व और मौलिक देन है । चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त भारत के सभी दर्शनों में कर्मसिद्धान्त का न्यूनाधिक विवेचन हुआ है, किन्तु जैनदर्शन में इस सिद्धान्त का जैसा सूक्ष्म, सुव्यवस्थित, परिमार्जित, वैज्ञानिक तथा विश्लेषणात्मक - विशद विवेचन उपलब्ध होता है, वैसा वैदिक और बौद्ध परम्परा में दुर्लभ है । जैन दर्शन में इसकी महत्ता इसी से सिद्ध होती है कि इस विषय पर महाबन्ध, कषायपाहुड़, कर्मशास्त्र, कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) आदि अनेक विशालकाय ग्रन्थों की स्वतन्त्र रूप से रचना की गयी है ।
यद्यपि प्राचीन काल में भी ऐसे चिन्तक हुए हैं, जो कर्मवाद में विश्वास नहीं करते थे । उनका चिन्तन आज भी जैन आगमों में उपलब्ध होता है ।
कर्मवाद विरोधी सिद्धान्त : गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) 2 और शास्त्रवार्ता - समुच्चय' आदि ग्रन्थों में कर्मवाद का विवेचन एवं विश्लेषण करते हुए कुछ ऐसे सिद्धान्तों का उल्लेख किया है, जो विश्व - वैचित्र्य की व्याख्या कर्मवाद के आधार पर न करके अन्य वादों के आधार पर करते हैं । गोम्मटसार में क्रियावादियों के एक सौ अस्सी भेदों का उल्लेख किया गया है । आत्मा, नियति और स्वभाव, यदृच्छा, भूतवाद, उल्लेख भारतीय वाङ्गमय में उपलब्ध एकांकी हैं, क्योंकि ये सिद्धान्त प्राणियों के
इस सम्बन्ध में काल, ईश्वर, दैववाद और पुरुषार्थवाद का होता है । उपर्युक्त सभी सिद्धान्त सुख-दुःख की व्याख्या एकांकी रूप से करते हैं । कर्मवाद को समझने के लिए उपर्युक्त कर्म विरोधी मतों का विवेचन आवश्यक है ।
१. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), ८७७-८९३ ।
२. शास्त्रवार्तासमुच्चय ( हरिभद्र ), द्वितीय स्तवक, १६४-१९३ ।
आत्ममीमांसा, पृ० ८६-९४ ।
(ख) जैन धर्म दर्शन, पृ० ४१६-४२४ ।
३. (क) गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड), गाथा ८७६-८७७ और ८९०-८९३ ।
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