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________________ १७४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार के योगसार में भी कहा गया है-'जो परमप्पा सो जि हउ सो परमप्पु ।'' 'जो तइलोयहं झेउ जिणु स्मे अप्पा णिरु वृत्त । २ अर्थात्-'तीनों लोकों के आराध्य जिनेन्द्र भगवान् को ही निश्चय से आत्मा कहा है।' 'निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा ही अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, मुनि, शिव, शंकर, विष्णु, रुद्र, बुद्ध, ईश्वर, ब्रह्म, अनन्त और सिद्ध है। परम निष्कल देव जो शरीर में वास करता है, उसमें और आत्मा में कोई भेद नहीं है।'३ उपर्युक्त कथन उपनिषदों की भाँति है। नियमसार तात्पर्यवृत्ति में भी कहा है 'करण परमात्मा ह्यात्मा' अर्थात्-करण परमात्मा ही आत्मा है। अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों में भी आत्मा को परमात्मा कहा गया है। जैन दर्शन में आत्मा को परमात्मा कहने का तात्पर्य यही है कि एक वस्तु की दो अवस्थाएँ हैं। कहा भी है-'जैन धर्म के अनुसार आत्मा और परमात्मा एक ही है, क्योंकि ये एक ही वस्तु की दो अवस्थाएँ हैं और इस तरह प्रत्येक आत्मा परमात्मा है।'६ नियमसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है कि समस्त संसारी जीव सिद्ध स्वभाव वाले होते हैं। जैन दर्शन में आत्मा के भेद-प्रभेद बहुत ही सूक्ष्म रूप से किये गये हैं, जो अत्यधिक मनोवैज्ञानिक हैं। हम अपने अध्ययन के आधार पर कह सकते हैं कि अन्य किसी भारतीय दार्शनिक ने इस प्रकार आत्मा का मनोवैज्ञानिक विवेचन नहीं किया है। आत्मा के इस प्रकार के भेद-विवेचन करने का जैन दार्शनिकों का प्रमुख उद्देश्य आत्म-स्वरूप को अवगत कराकर मोक्ष-मार्ग की ओर उन्मुख कराना है। १. योगसार, दो० २२ । २. वही, दो० ३७ । ३. वही, दो० १०४-१०६ । ४. नियमसार, तात्पर्यवृत्ति गा० ३८ । ५. स्वमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थः।-प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, , गा०६८। ६. परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना, हिन्दी अनुवाद, पृ० १०३ । ७. 'सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ॥' -नियमसार (शुद्धभावाधिकार), गा० ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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