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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १७३ (ख) मध्यम अन्तरात्मा : पांचवें गुणस्थान से उपशान्त मोह गुणस्थानवर्ती तक
के जीव मध्यम अन्तरात्मा कहलाते हैं ।' (ग) उत्कृष्ट अन्तरात्मा : आचार्य पूज्यपाद ने क्षीण कषाय नामक बारहवें गुण
स्थान में अवस्थित आत्मा को उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहा है।
३. परमात्मा : कुन्दकुन्दाचार्य, पूज्यपादाचार्य और स्वामी कार्तिकेय ने समस्त कर्मों से रहित शुद्धात्मा को परमात्मा कहा है। शुभचन्द्राचार्य ने कहा भी है-कर्मों के लेप से रहित. शरीरविहीन, रागादि विकारों से रहित, निष्पन्न, कृतकृत्य, अविनाशी, सुखस्वरूप तथा निर्विकल्प शुद्ध आत्मा परमात्मा है।
परमात्मा के भेद : स्वामी कार्तिकेय ने परमात्मा के दो भेद किये हैंअर्हन्त और सिद्ध । इन्होंने सकल परमात्मा और विकल परमात्मा-ये अन्य दो भेद भी किये हैं। बृहद् नयचक्र तथा नियमसार की तात्पर्यवत्ति में दो भेद किये हैं-कारणपरमात्मा और कार्यपरमात्मा । अर्हन्तपरमात्मा ही सकल परमात्मा और कारणपरमात्मा कहलाते हैं तथा सिद्ध परमेष्ठी को विकल और कार्य परमात्मा कहते हैं। जैन दर्शन के आत्मा-परमात्मा के एकत्व की उपनिषदों के आत्मा और ब्रह्म के तादात्म्य के साथ तुलना :
जिस प्रकार उपनिषदों में आत्मा को ब्रह्म कहा गया है, उसी प्रकार जैन दर्शन में भी आत्मा को परमात्मा कहा गया है । 'अहं ब्रह्मास्मि', 'तत्त्वमसि' इन महावाक्यों की भाँति जैन आध्यात्मिक ग्रन्थों में भी आत्मा को परमात्मा प्रतिपादित करने वाले वाक्य उपलब्ध होते हैं । उदाहरणार्थ समाधिशतक में कहा है-'जो परमात्मा है, वही मैं हूँ तथा जो मैं हूँ, वही परमात्मा है। इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य है, दूसरा कोई उपास्य महीं।" योगेन्दु
१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९६; द्रव्यसंग्रह टीका, गा० १४१ । २. सत्यशासनपरीक्षा, का० । ३. (क) मोक्षपाहुड़, गा० ५; समाधितंत्र, ५; परमात्मप्रकाश, दो ३०-४२ । ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० १९२ । ५. वही, गा० १९८ । ६. नयचक्र, गा० ३४० ; नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गा० ६ । ७. यः परमात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः । ___ अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।।-समाधिशतक, ३१ ।
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