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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १७१ हैं। गोम्मटसार की जीवप्रबोधिनी टीका में केशववर्णी ने कहा है कि प्राणियों को दुःखित करने वाला, स्वभाव से च्युत करने वाला नरक कर्म है और इस कर्म के कारण उत्पन्न होने वाले जीव नारकी कहलाते हैं।' नारकी जीवों को अत्यधिक दुःखों को सहना पड़ता है । नारकी जीवों के भेद : कुन्दकुन्दाचार्य ने भूमियों की अपेक्षा से सात प्रकार के नारकी बतलाये हैं । ३ ये सातों प्रकार के नारकी पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते है। जैन आचार्यों ने विस्तार को अपेक्षा से नारकी जीवों के चौदह भेद किये हैं।" अध्यात्म की अपेक्षा से आत्मा के भेद : अध्यात्म की अपेक्षा से जैन दार्शनिकों ने आत्मा के निम्नांकित तीन भेद किये है-१. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा । - आचार्य कुन्दकुन्द', पूज्यपाद, योगेन्दु, शुभचन्द्राचार्य , स्वामी कार्तिकेय', अमृतचन्द्र, गुणभद्र, अमितगति, देवसेन° एवं ब्रह्मदेव आदि आचार्यों ने उपर्युक्त तीन भेद किये हैं। अन्य किसी भी भारतीय दार्शनिकों ने उपर्युक्त प्रकार से स्पष्ट रूप से आत्मा के भेदों का उल्लेख तो नहीं किया है, किन्तु इसके अविकसित रूप उपनिषदों में परिलक्षित होते हैं। उदाहरण के लिए कठउपनिषद् में ज्ञानात्मा, महदात्मा और शान्तात्मा ये तीन भेद आत्मा के किये १. नरान् प्राणिनः, कायति यातयति, कदर्थयति खलीकरोति बाधत इति नरकं कर्म तस्यापत्यानि नारका:-गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), गाथा, १४७; धवला, १११।१।२४ । २. तत्त्वार्थवार्तिक, २।५०३ । ३. पंचास्तिकाय, गाथा ११८ । ४. सर्वार्थसिद्धि, ३११-६ । • ५. मोक्षपाहुड़, गाथा ४। ६. समाधिशतक, पद्य ४ । ७. परमात्मप्रकाश, १६११-१२, योगसार, ६ । ८. ज्ञानार्णव, ३२।५। ९. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९२ । १०. ज्ञानसार, गाथा २९ । ११. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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