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१७० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चों का विवेचन किया जा चुका है । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च का संक्षिप्त विवेचन निम्नांकित है
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च : नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के दो भेद किये हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज ।' कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यश्च के आचार्य वट्टकेर ने तीन भेद बतलाये हैं : १. जलचर, २. स्थलचर और ३. नभचर । २
उत्तराध्ययनसूत्र में जलचर के मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर और शिशुमार ये भेद किये हैं ।३ स्थलचर के दो भेद हैं-(क) चतुष्पद और (ख) परिसर्प ।' चतुष्पद के प्रज्ञापना" आदि में चार प्रकार बतलाये गये हैं
१. एक खुर वाले : घोड़ा आदि । २. दो खुर वाले : ऊंट, गाय, बकरी, भेड़ आदि ३. गंडी पद (गोल पैर वाले) : हाथी आदि
४. सनख पद तिर्यञ्च : सिंह, व्याघ्र, बिल्ली आदि परिसर्प दो प्रकार के होते हैं-भुजपरिसर्प और उरपरिसर्प । नकुल, सरह, छिपकली आदि भुजाओं से चलने वाले भुजपरिसर्प हैं और छाती के बल चलने वाले सर्प आदि उरपरिसर्प हैं।
खेचर की उत्तराध्ययनसूत्र में चार जातियाँ बतलाई गयी है-चर्म पक्षी, रोम पक्षी, समुद्र पक्षी और वितत पक्षी।
(घ) नारको आत्मा : मध्य लोक की तरह अधोलोक भो है । तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने कहा है कि रत्नप्रभा (धम्मा), शर्करा प्रभा (वंशा), बालुका प्रभा (मेघा), पंक प्रभा (अंजना), धूम प्रभा (अरिष्टा), तम प्रभा (मघवा), महातम प्रभा ( माधवी ) ये सात भूमियाँ एक के बाद एक नीचे-नीचे हैं। इन्हें नरकभूमियाँ कहते हैं । इन नरक-भूमियों में रहने वाले जीवों को नारकी कहते
१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ७९,९१ । २. मूलाचार, ५।२० । ३. उत्तराध्ययनसूत्र, ३६।१७३ । ४. वही, ३६।१८०। ५. प्रज्ञापना, ११२६; जीवाजीवाभिगमसूत्र, ११२८ । ६. (क) प्रज्ञापना, ११२७; जीवाजीवाभिगमसूत्र, १।२९ । ७. उत्तराध्ययनसूत्र, ३६।१८७-१८८ । ८. तत्त्वार्थसूत्र, ३।१। ९. नरकेषु भवा नारकाः, -तत्त्वार्थवार्तिक, २१५०।३,
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