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१६८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
हैं । स्पर्शन, रसन, कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास-ये छह प्राण होते हैं । ये सभी आत्माएँ असंज्ञी और नपुंसक होते हैं। इनकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष होती है। क्रोधादि चारों कषायें एवं आहारादि चारों संज्ञाएँ होती हैं। द्वीन्द्रिय आत्माएँ सम्मर्छनज होती हैं। ये पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार की होती है ।
द्वीन्द्रिय आत्माओं के कुछ नाम : जीवाजीवाभिगमसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, मूलाचार आदि में कुक्षि कृमि, अपायुज, सीप, शंख, गण्डोला, अरिष्ट, चन्दनक, क्षुल्लक, कौड़ी, शंवुक, मातृवाह, णेउर, सोमंगलम, वंशीमुख, सूत्रिमुख, गौजलौका, धुल्ल, खुल्ल आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं ।'
त्रीन्द्रिय आत्मा : त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से जिनके स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें त्रीन्द्रिय आत्मा कहते है । आगमों में जूं, कुंभी, खटमल, कुन्थु, पिपीलिका, चींटा, इन्द्रगोप, चीलर, दीमक, तृणाहार, काष्ठाहार, झींगुर, पिसुआ, किल्ली, लीख, इल्ली आदि त्रीन्द्रिय जीव है ।२
चतुरिन्द्रिय आत्मा : जिनके स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें चतुरिन्द्रिय जीव कहते हैं। ये पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा से दो प्रकार के होते हैं। पंचास्तिकायादि में मकड़ी, पतंगा, दंश, भौंरा, बरे, मधुमक्खी, गोमक्खी, मच्छर, टिड्डो, ततैया, कुर्कुट आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं ।
पंचेन्द्रिय आत्मा : पंचेन्द्रिय आत्मा के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियां होती हैं।४ पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म के उदय से ही इन इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। ये दोनों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं।" देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यञ्च की अपेक्षा से पंचेन्द्रिय आत्मा के चार भेद हैं।
१. जीवाजीवाभिगमसूत्र, १।२२। पन्नगसुत्त, १।२० । प्रज्ञापना, ११४४ ।
मूलाचार, ५।२८ । २. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य-मूलाचार, ११२८; जीवाजीवाभिगमसूत्र,
१।२९; उत्तराध्ययनसूत्र, ३६।१३७-१३९; धवला, ११११११३३ । ३. (क) पचास्तिकाय, गा० ११६; प्रज्ञापना, ११२२; उत्तराध्ययनसूत्र,
३६॥ ४६-१४९ । ४. पंच इन्द्रियाणि येषां ते पंचेन्द्रियाः-धवला, १।११।३३ । ५. षट्खण्डागम, ११।१।३५ ।
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