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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १६७ धवला में बतलाया है कि जिन वनस्पतिकायिक जीवों का ( प्रत्येक का ) पृथक्-पृथक् शरीर होता है, वे प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव कहलाते हैं । " केशव वर्णी ने भी एक शरीर में एक जीव के रहने वाले को प्रत्येक शरीरी वनस्पति कहा 12 ये जीव बादर ही होते हैं । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) में प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित की अपेक्षा से प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीव के दो भेद किये गये हैं । ३ दोनों में प्रमुख अंतर यह है कि प्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीव के आश्रित अन्य अनेक साधारण जीव रहते हैं, लेकिन अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव के आश्रित अन्य निगोदिया जीव नहीं रहते हैं । स्कन्ध में जितने शरीर होंगे, उतने ही जीव होंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में प्रत्येकशरीरी वनस्पति के बारह भेद किये गये हैं: वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, तृण, लतावलय, पर्वग, कुहुण, जलज, औषधि और हरितकाय । ५ साधारण शरीर नामकर्म के उदय से जिन अनेक जीवों का एक ही शरीर होता है, उन्हें साधारणवनस्पतिकायिक जीव कहते हैं । इन जीवों के विषय में षट्खंडागम में कहा है कि साधारण शरीरी जीवों का आहार, श्वासोच्छ्वास, उत्पत्ति, शरीर की निष्पत्ति, अनुग्रह, साधारण ही होते हैं । एक की उत्पत्ति से सबकी उत्पत्ति और एक के मरण से सब का मरण होता है । साधारण शरीरी वनस्पतिजीव निगोदिया जीव भी कहलाते हैं ।" निगोदिया जीव अनन्त हैं । स्कन्ध, अण्डर ( स्कन्धों के अवयव), आवास (अण्डर के भीतर रहने वाला भाग), पुलविका ( भीतरी भाग ) द्वारा निगोदिया जीवों का उल्लेख किया जाता है । द्वीन्द्रिय आत्मा : द्वीन्द्रिय आत्मा के स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रियाँ होती १. धवला, ११९१११४१ । २. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) जीवतत्त्वप्रदीपिका, १८५ । ३. वही, १८५ । ४. प्रतिष्ठितं साधारण शरीरैराश्रितं प्रत्येकशरीरं येषां ते प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीरा:तैरनाश्रितशरीरा अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीराः स्युः । - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, गा० १८६ | ५. उत्तराध्ययन सूत्र, ३६।९५-९६ । ६. सर्वार्थसिद्धि, ८।११, धवला, १३।५।५।१०१ । ७. षट्खण्डागम, १४/५/६ । १२२-२५ । ८. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, गा० १२५ । ९. घवला, १४।५।६।९३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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