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१६४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार सार स्थावर आत्मा के तीन भेद हैं-पृथिवी, जल और वनस्पति ।' जिनके स्थावर नामकर्म का उदय रहता है, वे स्थावर जीव कहलाते हैं। स्थावर की इस परिभाषा के अनुसार उमास्वामी ने स्थावर आत्मा के पांच भेद कहे हैं
१. पृथ्वीकायिक २. जलकायिक ३. अग्निकायिक ४. वायुकायिक
५. वनस्पतिकायिक इन पाँच स्थावर आत्माओं के भी अनेक भेद-प्रभेद होते हैं। शुद्धि-अशुद्धि की अपेक्षा से संसारी आत्मा के भेद :
शुद्धि-अशुद्धि की अपेक्षा से संसारी आत्मा के निम्नांकित दो भेद हैंभव्य-आत्मा और अभव्य-आत्मा ।
भव्यात्मा : जिस आत्मा में मुक्त होने की शक्ति होती है, उसे भव्यात्मा कहते हैं। जिस प्रकार सीझने (पकने) योग्य मूंग आदि की दाल अनुकूल साधन मिलने पर सीझ जाती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि निमित्त सामग्री के मिलने पर समस्त कर्मों का समूल क्षय करके शुद्ध चैतन्य स्वरूप को प्राप्त करने (सिद्ध होने) की शक्ति जिन संसारी आत्माओं में होती है, उन्हें भव्यात्मा कहते हैं। ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों में भी यही कहा गया है।"
अभव्यात्मा : अभव्य-आत्मा कभी भी नहीं सीझने (पकने) वाली मूंग की दाल या अन्धपाषाण की तरह होता है । अभव्य-आत्मा में सम्यग्दर्शनादि निमित्तों को प्राप्त करने एवं मुक्त होने की शक्ति नहीं होती है। इस प्रकार का आत्मा सदैव संसार में भ्रमण करता रहता है । मन की अपेक्षा से संसारी आत्मा के भेद :
उमास्वामी आदि आचार्यों ने मन की अपेक्षा से संसारी आत्मा के निम्नांकित दो भेद किये हैं- (क) संज्ञी आत्मा और (ख) असंज्ञी आत्मा। १. उत्तराध्ययनसूत्र, ३६७० । २. (क) सर्वार्थसिद्धि, २।१२। (ख) तत्त्वार्थवार्तिक, २।१२,३।५ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, २०१३। ४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ५५६ । ५. ज्ञानार्णव, ६।२०, ६।२२।। ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ५५६-५५७ । ७. समनस्काऽमनस्काः , तत्त्वार्थसूत्र, २०११ ।
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