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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १६३ चक्रवर्ती ने कहा भी है कि जिस प्रकार कावटिका के द्वारा बोझा ढोया जाता है, उसी प्रकार शरीररूपी कावटिका के द्वारा संसारी आत्मा अनेक कष्टों को सहती हुई, कर्मरूपी भार को विभिन्न गतियों में होती हुई भ्रमण करती रहती है।' गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीव-समास संसारी आत्मा के ही होते हैं। जो आत्मा संसार के आवागमन से मुक्त हो गयी है, उसे मुक्त आत्मा कहते हैं । मुक्त आत्मा के समस्त कर्मों का समूल विनाश हो जाने के कारण शुद्ध-स्वाभाविक स्वरूप प्रकट हो जाता है। पांचवें अध्याय में इसका विस्तृत विवेचन किया गया है। संसारी आत्मा के भेद-प्रभेद : ___ संसारी आत्मा का विभाग अनेक दृष्टिकोणों से किया गया है। जैन चिन्तकों ने चैतन्य गुण की व्यक्तता अपेक्षा से संसारी आत्मा के दो भेद किये हैं(क) त्रस और (ख) स्थावर ।
त्रस आत्मा : त्रस आत्मा में चैतन्य व्यक्त होता है और स्थावर आत्मा में अव्यक्त । आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में बताया है कि जिनके त्रस नामकर्म का उदय होता है, वे त्रस आत्माएँ हैं।
त्रस आत्मा के निम्नांकित चार भेद हैं -(क) द्वीन्द्रिय, (ख) त्रीन्द्रिय, (ग) चतुरिन्द्रिय, (घ) पंचेन्द्रिय । इनका विस्तृत विवेचन इसी प्रकरण में आगे किया गया है।
जो गमन करती हैं, वे त्रस आत्माएँ है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार उत्तराध्ययनसूत्र में अग्नि और वायु को भी त्रस मानकर अस आत्मा के छह भेद बतलाये गये हैं।
स्थावर आत्मा : जो स्थिर रहे अर्थात् जिस आत्मा में गमन करने की शक्ति का अभाव होता है, उसे स्थावर आत्मा कहते हैं । इस व्युत्पत्तिमूलक अर्थ के अनु१. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), गा० २०२ । २. नयचक्र, गा० १०९ । ३. सर्वार्थसिद्धि, २।१०। ४. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), गा० २०३ । ५. संसारिणस्त्रसस्थावराः, -तत्त्वार्थसूत्र, २०१२ । ६. सनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसाः,-सर्वार्थसिद्धि, २०१२ । ७. द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः, तत्त्वार्थसूत्र, २०१४ । ८. उत्तराध्ययनसत्र, ३६१६९-७२ ।
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